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चतुर्थ खण्ड : कृतित्व खण्ड
(२७)
ईश्वर और सृष्टि विचार
(तर्ज- अगर जिनदेव के चरणों में तेरा ध्यान हो जाता) जगत - कर्त्ता नहीं ईश्वर, न्याय से शोध कर देखो ॥धु. ॥ न रागी है न द्वेषी है, चिदानंद वीतरागी है । प्रपंची वह न हो सकता ॥ १ ॥ न्या. ॥ दयालु पूर्ण ज्ञाता है, अमित शक्ति का धर्त्ता है जगत का खेल नहीं (क्यों) करता रूप अरु नाम नहीं जिसमें, नहीं इच्छा है कुछ बाकी उसे क्या (नहीं कुछ) प्राप्त करना है ॥३ ॥ न्या. ॥ है आगर ।
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॥२ ॥ न्या. ॥
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ज्ञान आनंद का सागर, विमल गुण का
जादूगर हो नहीं सकता ॥४ ॥ न्या. ॥ विषम दुनिया की हालत का, शुभाशुभ कर्म कारण है । यह जड़ चैतन्य का मेला ॥५ ॥ न्या. ॥ सुजन, दुर्जन, सबल, निर्बल, दुःख अरु सौख्य की छाया ।
कर्म की दृष्ट सब माया ॥ ६ ॥ न्या. ॥ नाम, रूपादि की सृष्टि भरी है विविध दोषों से । पूर्ण निर्दोष है ईश्वर ॥७ ॥ न्या. ॥
(२८)
सुशिक्षा
(तर्ज- होवे धर्म प्रचार...)
नर
तुम सुनो सभी यह करती जन्म सुधार, शिक्षा तत्त्वात्त्व पिछाणे जासे, पुण्य-पाप को जाने सबको अपना जाने जासे, सुखी बने संसार ॥१ ॥ शिक्षा ॥ पढ़कर झूठ वचन जो छोड़े गाली से मन को नहीं जोड़े । भांग तमाखू मद तन तोड़े, तजे विज्ञ नर-नार ॥२॥ शिक्षा ॥
दुर्व्यसनों के पास न जावे, तन-धन- इज्जत खूब बचावे
पर धन पर नहीं चित्त लुभावे, ज्ञान पढ़े का
नार शिक्षा सुखदाई ।
सुखदाई ॥टेर ॥ जसे ।
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सार ॥ ३ ॥ शिक्षा ||
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