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________________ ७७२ पवरगंधहत्थीणं मात पिता गुरुजन की आज्ञा, हिय में नहीं जमावेला । इच्छाचारी बनकर हित की, सीख भुलावेला ॥३॥घणो ॥ यो तन पायो चिंतामणि सम, गयां हाथ नहीं आवेला । दया-दान-सद्गुण संचय कर, सद्गति पावेला ॥४॥घणो॥ निज आतम ने वश कर पर की, आतम ने पहचानेला । परमातम भजने से चेतन, शिवपुर जावेला ॥५॥घणो ॥ महापुरुषों की सीख यही है, 'गजमुनि' आज सुनावेला । गोगोलाव में माह बदि को, जोड़ सुनावेला ॥६॥घणो॥ (२३) सेवा-धर्म की महिमा (तर्ज- सेवो सिद्ध सदा जयकार) सेवा-धर्म बड़ा गंभीर, पार कोई विरले पाते हैं । विरले पाते हैं, बंधुता भाव बढ़ाते हैं ।(जगत का खार मिटाते हैं) तन-धन-औषध-वस्त्रादिक से, सेवा करते हैं । स्वार्थ-मोह-भय-कीर्ति हेतु, कई कष्ट उठाते हैं ॥१॥ सेवा से हिंसक प्राणी भी, वश में आते हैं । सेवा के चलते सेवक, अधिकार मिलाते हैं ॥२॥ नंदिषेण मुनि ने सेवा की, देव परखते हैं ।। क्रोध-खेद से बचकर, मन अहंकार न लाते हैं ॥३॥ धर्मराज की देखो सेवा, कृष्ण बताते हैं । क्रोड़ों व्यय कर अहंभाव से, अफल बनाते हैं ॥४॥ द्रव्य-भाव दो सेवा होती, मुनि जन गाते हैं । रोग और दुर्व्यसन छुड़ाया, जग सुख पाते हैं ॥५॥ जीव-जीव का उपयोगी हो, दुःख न देते हैं । जगहित में उपयोगी होना, विरला चाहते हैं। (गजमुनि' चाहते हैं) ॥६॥ (२४) उद्बोधन (तर्ज-तेरा रूप मनोहर...) ऐ वीर भूमि के धर्मवीर, जीवन निर्माण करो अब तो ॥टेर ॥
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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