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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ७५२ | (पोतियाबंद) गच्छ की पट्टावली भी दी गई है । ८६८ पृष्ठों का यह भाग सर्वप्रथम १९८७ ई. में प्रकाशित हुआ था । जैनधर्म का मौलिक इतिहास के अन्तिम दो भागों का आलेखन एवं संपादन श्री गजसिंह जी राठौड़ ने किया है । विशालकाय जैन धर्म के मौलिक इतिहास के चारों भागों का प्रकाशन जैन इतिहास समिति लाल भवन चौड़ा रास्ता, जयपुर से हुआ है। अब पुनः प्रकाशन सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर द्वारा किया जा रहा है । (४) ऐतिहासिक काल के तीन तीर्थंकर इसमें अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ और भ. महावीर नामक अन्तिम तीन तीर्थंकरों का जीवन चरित्र और उनके काल | की घटनाओं का ऐतिहासिक आधार पर वर्णन हुआ है। यह पुस्तक 'जैन धर्म का मौलिक इतिहास' के प्रथम भाग का ही एक अंश है। इसका प्रकाशन भी जैन इतिहास समिति जयपुर द्वारा ही किया गया है। (ई) काव्य, कथा एवं अन्य साहित्य 1 (१) गजेन्द्र-पद-मुक्तावली आचार्य श्री का काव्य-रचना पक्ष भी भावों की पारदर्शिता के कारण अत्यन्त समृद्ध एवं लोकप्रिय है । | आचार्य श्री के द्वारा जो काव्य रचना की गई है वह सम्पूर्ण रूप में तो उपलब्ध नहीं है, किन्तु जो रचनाएँ उपलब्ध हो | सकी हैं, उनमें से ७० पद्य रचनाएँ गजेन्द्र पद मुक्तावली के रूप में प्रकाशित हैं । इनमें कुछ प्रार्थनाएँ हैं, कुछ आध्यात्मिक चेतना को स्फुरित करने वाले भजन और पद हैं तो कुछ काव्य सामायिक, स्वाध्याय, सेवा, गुरुगुण-गान और समाज चेतना से सम्बन्धित हैं । कतिपय रचनाएँ पर्युषण, रक्षाबन्धन वर्षा ऋतु आदि पर्वों से भी सम्बद्ध हैं। 'जगत कर्ता नहीं ईश्वर' जैसी कुछ पद्य रचनाएँ दार्शनिक हैं तो “प्रतिदिन जप लेना” जैसी कतिपय रचनाएँ इतिहास और परम्परा बोध को समेटे हुए हैं। आचार्य श्री के काव्य को डॉ. नरेन्द्र जी भानावत ने चार भागों में विभक्त किया है - १. स्तुति काव्य २. उपदेश काव्य ३. चरित काव्य ४ पद्यानुवाद । स्तुति में भक्त अपने आराध्य के प्रति निश्छल भाव से अपने को समर्पित करता है। आचार्य श्री के आराध्य वीतराग प्रभु हैं, जो रागद्वेष के विजेता हैं । भगवान् ऋषभदेव, शान्तिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर स्वामी की स्तुति करते हुए आचार्य श्री ने उनके गुणों के प्रति अपने आपको समर्पित किया है । वर्धमान महावीर की स्तुति करते हुए आचार्य श्री कहते हैं श्री वर्धमान जिन, ऐसा हमको बल दो घट घट में सबके, आत्मभाव प्रगटा दो। टेर । प्रभु वैर-विरोध का भाव न रहने पावे । विमल प्रेम सबके घट में सरसावे । अज्ञान मोह को, घट से दूर भगा दो ॥ घट ॥ १ ॥ आचार्य श्री को गुरु के समान और कोई उपकारी नजर नहीं आता, इसलिए गुरु-वन्दना करते हुए आचार्य श्री कहते हैं उपकारी सद्गुरु दूजा, नहीं कोई संसार । मोह भंवर में पड़े हुए को, यही बड़ा आधार ॥ उपदेशकाव्य के रूप में ‘गजेन्द्र पद मुक्तावली' में अनेक रचनाएँ संगृहीत हैं यथा- “समझो चेतन जी अपना
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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