________________
|| चतुर्थ खण्ड : कृतित्व खण्ड
७४७
(इ) इतिहास-साहित्य (१) पट्टावली प्रबन्ध संग्रह
जैन इतिहास पर आचार्य श्री की यह प्रथम पुस्तक है। जैन इतिहास में विशेषत: लोंकागच्छ और स्थानकवासी परम्परा को जानने की दृष्टि से यह कृति अत्यन्त उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण है। आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. इतिहास मार्तण्ड की उपाधि से अलंकृत रहे हैं। उनके द्वारा इतिहास सामग्री के संकलन और लेखन का उच्च स्तरीय कार्य किया गया है। पट्टावली प्रबन्ध संग्रह में लोंकागच्छ की सात पट्टावलियाँ एवं स्थानकवासी परम्परा की दस पट्टावलियाँ संगृहीत हैं। ये पट्टावलियाँ जैन इतिहास पर विशेष प्रकाश डालती हैं। इनका निर्माण श्वेताम्बर जैन मुनियों ने किया है। पट्टावलियों को मुख्य रूप से दो भागों में बांटा जा सकता है - शास्त्रीय पट्टावली और विशिष्ट पट्टावली। कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र में सुधर्मा स्वामी से देवर्धिगणि तक जो पट्टावली प्राप्त होती है वह शास्त्रीय पट्टावली है। गच्छभेद के पश्चाद्वर्ती पट्टावलियाँ विशिष्ट पट्टावलियों के नाम से कही जा सकती हैं। इन पट्टावलियों की अपनी अलग विशेषता होती है। इतिहास लेखन में जिस प्रकार शिलालेख, प्रशस्तियाँ आदि उपयोगी हैं उसी प्रकार पट्टावलियों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। शिलालेख एवं प्रशस्तियों से केवल इतना ही बोध होता है कि किस काल में किस मुनि ने क्या कार्य किया। अधिक हुआ तो उस समय के राज्य शासन एवं गुरु-शिष्यपरम्परा का भी परिचय मिल सकता है, किन्तु रास, गीत और पट्टावली उनके स्मरणीय गुणों, तप, संयम एवं आचार का भी ज्ञान कराते हैं। पट्टावली में अपनी परम्परा से सम्बन्धित पट्टपरम्परा का पूर्ण परिचय दिया जाता है। पट्टावलियों का निर्माण किंवदन्तियों और अनुश्रुतियों से नहीं हुआ है, इनके निर्माण में तत्कालीन रास, गीत, सज्झाय
और प्रशस्तियों का भी उपयोग होता है। श्रुति परम्परा के भेद से इनमें कदाचित् नाम एवं घटना चक्र में भिन्नता भी प्राप्त होती है। पट्टावली के द्वारा ही आचार्य परम्परा का क्रमबद्ध पूर्ण इतिहास प्राप्त होता है, जो इतिहास लेखन में सहायक है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय की ओर से इस पट्टावली के प्रकाशन से पूर्व दो-तीन संकलन प्रकाशित हुए थे, परन्तु उनमें लोंकागच्छ और स्थानकवासी परम्परा की पट्टावलियों का व्यवस्थित संकलन नहीं हो पाया था। अत: उस कमी की पूर्ति इस पट्टावली प्रबन्ध संग्रह द्वारा की गई है।
यह संकलन आचार्य श्री के द्वारा राजस्थान के विभिन्न ज्ञान-भण्डारों और गुजरात में पाटन, खम्भात, बड़ौदा , अहमदाबाद आदि नगरों के ज्ञानभण्डारों का निरीक्षण करने का परिणाम है। इससे आचार्य श्री की इतिहास विषयक गवेषणात्मक दृष्टि का परिचय मिलता है। आचार्य श्री के इस अभियान का प्रारम्भ संवत् २०२२ में बालोतरा चातुर्मास से हुआ। लोंकाशाह के बाद की परम्परा के मुख्य स्रोत इस कृति के माध्यम से एक स्थान पर उपलब्ध हो सके हैं।
पुस्तक में हस्तलिखित प्रतियों का मूल पाठ सुरक्षित रखा गया है। लोंकागच्छ परम्परा के अन्तर्गत निम्नांकित सात पट्टावलियाँ संकलित हैं
१. पट्टावली प्रबन्ध २. गणि तेजसीकृत पद्य पट्टावली ३. संक्षिप्त पट्टावली, ४. बालापुर पट्टावली ५. बड़ौदा पट्टावली ६. मोटा पक्ष की पट्टावली ७. लोंकागच्छीय पट्टावली।
___ स्थानकवासी परम्परा के अन्तर्गत ये दस पट्टावलियाँ संकलित हैं- १. विनयचन्द्र जी कृत पट्टावली २. प्राचीन पट्टावली ३. पूज्य जीवराजजी की पट्टावली ४. खंभात पट्टावली ५. गुजरात पट्टावली ६. भूधरजी की पट्टावली ७.