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________________ ७१२ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं जो मार का मद मार के बे - मार करते चार को। लाचार कर दुर्भावना अपना रहे पुनि चार को ॥२॥ जिसकी अडिग आस्था अहा ! मन सज्जनों के भा रही। जो पिशुनता के प्रेमियों को त्रास देती है सही॥ निन्दादि विकथा, वञ्चना , शोधी मिले न अहा ! जहां । कारण यही उर ठानलो नहीं दम्भ तो फटके वहाँ ॥३॥ अलमस्त है इतिहास-लेखन कार्य में दिन-रात जो। बिखरी हुई सामग्रियाँ संग्रह करें निज हाथ जो। पुनि पूर्वजों का प्रेम-निधि हिय में हिलोरें ले रहा। वृत्तान्त गौरवता भरा जिसको सदैव सुहा रहा ॥४॥ अध्यात्म - ज्ञानामृत भरी वानी सुहानी है घनी। मन-मुदित भावुक भ्रमर होते पेखलो जिसको सुनी ।। हो, क्यों न कैसी भी परिस्थिति, ध्येय पै नहिं ढावना। होवे चिरायु गजेन्द्र-मुनि-वर, मिश्रि की यह भावना ॥५॥ (आचार्य श्री की दीक्षा स्वर्ण जयन्ती पर प्रस्तुत) (१७) पूज्य - पञ्चक कृषकषाय मृदुता भरी, ध्याता ध्यान धुरीन्द्र। साम्य भाव भावित सदा, गजगणि रूप सूरीन्द्र ॥१॥ मद मच्छर मिथ्या परे, अतिशयवन्त यतीन्द्र। शिव-दिव-लइल हरित रहै, गजगणि रूप सुरीन्द्र ॥२॥ भव्य बोध बोधित सदा, कृदामोह खवीन्द्र । मुदामान मर्दित यदा, ददा ज्ञान गणीन्द्र ॥३॥ आतम तत्त्व अवलोकता, चित्तसमाधि पूर। गणनायक सायक निबल, सबला संयम शूर ॥४॥ अशुभाचार निवारणे, साध्यभाव भवीन्द्र। रूप स्वरूप साधक गणि, हस्तीमल मुनीन्द्र ॥५॥ (श्री रूपमुनि 'रजत', १२.८.१९८९)
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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