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तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
जहँ तहँ विहरते भव्य उपदेश तै संताप को, जिन वचन शक्ति विचार से हरते सदा जो पाप को, जाते जहाँ सर्वत्र ही जैन ध्वजा फहरावते ।
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शुभ बुद्धि हस्तीमल्ल गणि को देखि कलिमल भागते ॥३ ॥
आचार्य श्री जहाँ जहाँ विचरते हैं वहाँ भव्य मनुष्यों के पापों का जिनेश्वर प्रतिपादित वाणी के उपदेश से नाश करते हैं और जहाँ जाते हैं वहाँ जैन ध्वजा को फहराते हैं । ऐसे शुद्ध बुद्धि के धारक आचार्य श्री हस्तीमल्लजी को | देखकर पाप स्वयं पलायमान हो जाते हैं अर्थात् दूर हो जाते हैं ।
चकोराणां वृन्दं सुखमुपनयेद् यद्यपि शशी, दिवा रात्रौ नैव प्रभुरयमलं सर्वसमये । गुहाध्वान्तं सूर्यो हरति नहि हृद्ध्वान्तमपि यो, गणी हस्तीमल्लः शमितकलिमल्लः शुभमतिः ॥४ ॥ रात में ही चन्द्र देता, सुख चकोर समूह कोदिन रात मुनिवरजी हमारे, दे रहे सुख भव्य को । रवि कन्दरा तम भी नहीं, गणिवर हृदय तम नाशते
शुभ बुद्धि हस्तीमल्ल गणि को देखि कलिमल भागते ॥४ ॥
यद्यपि चन्द्रमा रात्रि में ही चकोरों के समूह को आनन्द प्रदान करता है, किन्तु मुनिवर (आचार्य श्री) हमें रात्रि-दिन | उपदेश रूप उत्तम सुख प्रदान करते हैं। सूर्य तो गुफाओं में रहे हुए अंधकार को ही नष्ट करता है, किन्तु आचार्य श्री हृदय में रहे हुये अज्ञानान्धकार को नष्ट करने में समर्थ हैं, ऐसे शुद्ध बुद्धि के धारक आचार्य हस्तीमल्ल जी को देखकर पाप स्वयं पलायमान हो जाते हैं ।
यथा वै जन्मान्धो विमलनयनं प्राप्य सुनिधि, दरिद्रो दैवेनाप्रतिममतिसौख्यं लभते । तथा भव्या हर्षं दधति किल यद्दर्शनवशाद्गणी हस्तीमल्लः शमितकलिमल्लः शुभमतिः ॥५ ॥ जन्मान्ध जैसे विमल लोचन प्राप्त कर होता सुखीनिर्धन सुनिधि पा दैववश जैसे सदा अतिशय सुखी । मुनिवर्य दर्शन से तुरत भविजन मुदित मय हर्षते - शुभ बुद्धि हस्तीमल्ल गणि को देखि कलिमल भागते ॥५॥
जैसे जन्मान्ध मनुष्य नेत्र ज्योति प्राप्त कर सुखी होता है और निर्धन मनुष्य भाग्य से अमूल्य निधि को प्राप्त कर सुखी होता है वैसे ही मुनिवर आचार्य श्री के दर्शन से भव्य मनुष्य अत्यन्त हर्षित होते हैं । ऐसे शुद्ध बुद्धि के धारक आचार्य श्री हस्तीमल जी को देखकर पाप स्वयं पलायमान जाते हैं अर्थात् दूर हो जाते हैं ।