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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ओर बृहस्पति की सकारात्मक दृष्टि अलौकिक ज्ञान सम्पन्न, प्रतिभाशाली, तेजस्वी-वर्चस्वी, परोपकारी के साथ-साथ 'सर्वभूतहितेरतः' लोक कल्याण करने वाला महापुरुष बनाती है। अब मंगल पर दृष्टिपात किया जाय तो मंगल लग्नेश होकर अष्टम में स्वगृही है और वह भी विशेष दृष्टि से तृतीय स्थान पराक्रम को देखता है। चन्द्र पर मंगल की दृष्टि अत्यन्त शुभ मानी गई है। यह विपरीत राजयोग की भी संज्ञक है। यह व्यक्ति को कर्मठ, अनुशासन प्रिय, संगठनकर्ता, कुशल नेतृत्व से सम्पन्न राष्ट्रीय संत और कुशल प्रशासक बनाती है। ग्रहों की इतनी सारी दृष्टियाँ आचार्य श्री के व्यक्तित्व को बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न बताती हैं तथा समाज को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करने वाला पथ-प्रदर्शक बताती हैं ।
वस्तुत: चन्द्र की स्थिति केमुद्रम योग वाली है, परन्तु बृहस्पति की दृष्टि ने उसे ज्ञान संपन्न कर दिया। लौकिक रिक्तता को अलौकिक ज्ञान से परिपूर्ण कर दिया। बृहस्पति के कारण ही जैनागमों के मर्मज्ञ और तत्त्ववेत्ता बने और वाणी ओजस्वी शक्ति से युक्त हो गई। मंगल के कारण बीस वर्ष की आयु में ही आचार्य पद की प्राप्ति हुई और ६१ वर्ष तक कुशल नेतृत्व किया तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्र को साकार किया।
केन्द्र में गुरु और शुक्र की स्थिति भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। गुरु आत्मोत्थान का परिचायक है तो शुक्र समाजोत्थान के कार्य करवाता है। एक ही ग्रह इनमें से केन्द्र स्थित शुभ माना गया है तो दो-दो ग्रह मिलकर अत्यंत प्रभावशाली बनाते हैं। कहा भी गया है
शुक्रो यस्य बुधो यस्य, यस्य केन्द्रे बृहस्पतिः।
दशमोगारको यस्य स जात: कुल दीपकः ॥ यहाँ कुल दीपक योग स्थित है। इस कारण ही आचार्य श्री ने अपने कुल का नाम रोशन किया और संसार में आपका मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा और ख्याति दिग्-दिगंत में सुगन्ध के समान फैल गई। अकेला बृहस्पति ही सिंह के समान पराक्रमी बताया गया है। अकेला शेर जिस प्रकार हाथियों के झुण्ड को परास्त कर देता है, ठीक वैसे ही अकेला केन्द्रस्थ गुरु ही पर्याप्त होता है। शास्त्रकारों ने कहा भी है
किं कुर्वन्ति ग्रहाः सर्वे यस्य केन्द्र बृहस्पतिः । ___ अस्तु । अब शनि की स्थिति पर विचार किया जाय तो शनि नीच राशि का है। शुक्र दशम भाव में स्थित है और शनि दशम भाव में स्थित शुक्र को देखता है। यह शनि की अपनी राशि है। चलित में द्वादश भाव में शनि प्रव्रज्या योग कारक होता है। यह एक तरफ त्याग-वैराग्य करवाता है तो दूसरी ओर लोक-कल्याण के कार्य कराता है। एक ओर स्वयं को त्यागी वैरागी बनाता है तो दूसरी ओर समाज में धार्मिक कार्यों और आध्यात्मिक चेतना में प्रवृत्ति करवाता है। यहाँ पर शनि की जो नकारात्मक दृष्टि है वह दशम भाव कर्म के लिए सकारात्मक दृष्टि बन गई है। अन्ततोगत्वा यह निष्कर्ष निकलता है कि इन योगायोगों ने आचार्य श्री को एक महान् राष्ट्रीय संत के रूप में देदीप्यमान नक्षत्र कर प्रतिष्ठित किया। • दीक्षा कुण्डली
दीक्षा कुंडली का भी अपना अलग महत्त्व होता है जिस प्रकार जन्म कुंडली महत्त्वपूर्ण होती है ठीक उसी प्रकार से संत के जीवन को दीक्षा कुंडली प्रभावित करती है। संपूर्ण आध्यात्मिक जीवन दीक्षा कुंडली से ही संचालित होता है, क्योंकि एक संत का जीवन-चक्र तो दीक्षा के बाद ही प्रवर्तित होता है।