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________________ (तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड ६८१ बन्धु गद्गद् हो जाते, नतमस्तक हो जाते। पूज्यवर श्री हस्ती गुरुदेव के जीवन के लगभग ७० वर्ष संयमावस्था में गुजरे। इसी सुदीर्घ अन्तराल में अनेकानेक ऐसे दृष्टान्त भी देखने-सुनने में आए जब उनके दर्शन एवं मांगलिक प्रभाव से या उनकी किसी बात, किसी घटना में ऐसा कछ हआ जिसे आम भाषा में हम चमत्कार का नाम देते हैं। यद्यपि ऐसे चमत्कारों से कई गना बढकर उनका जीवन साधना के प्रेरणा के छोटे बडे असंख्य प्रसंगों से भरा पड़ा है. किन्त जैसी कि दनिया की रीति होती तों को सब महसस कर पाएं या नहीं जान पाएं या नहीं किन्त चमत्कार का सा आभास देने वाली हर सूक्ष्म बात भी बेतार के तार की तरह अल्पसमय में चारों ओर प्रसत हो जाती है। यही कारण रहा है कि कई बार भक्तगण भावुकता में उन्हें 'चमत्कारी सन्त' कह उठते। किन्तु हकीकत में उनके व्यक्तित्व का यह परिचय महत्त्वपूर्ण नहीं। सच तो यह है कि उनके जीवन के, उनकी साधना के उद्देश्य चमत्कार की भावना से बहुत ऊपर उठे हुए थे। उन्होंने चमत्कार को कभी भी साधना का लक्ष्य नहीं समझा। किन्तु उनके अतिशय व तेज से कई बार सहज में ऐसा कुछ हो जाता जिसे भक्तगण चमत्कार कह बैठते थे। एक बार ऐसे ही किसी श्रद्धालु भक्त ने कहा कि आपकी मांगलिक में वह दिव्य चमत्कार है कि अस्वस्थ भी स्वस्थ बन जाता है, कष्ट और बाधाएँ दूर हो जाती हैं और कठिनाइयाँ सरल बन जाती हैं । गुरुदेव ने शान्त भाव से सुना। सुनकर भी चेहरे पर कोई दर्प, कोई हर्ष नहीं। प्रत्युत्तर में उसी सहजता उसी निस्पृहता से कहने लगे “भाई, एक साधक की साधना और दीक्षा का लक्ष्य ये थोथे चमत्कार नहीं होते। यों कई बार सहज ही ऐसे प्रसंग बन जाते हैं। जैसे कि एक किसान बीज तो बोता है, किन्तु चारे भूसे की कामना से वह इतना परिश्रम नहीं करता । उसका लक्ष्य होता है अनाज के दानों की प्राप्ति । हाँ, उन हजारों दानों के साथ सहज रूप से उसे चारा-भूसा भी मिल जाता है। इसी भांति एक साधक तो सदैव अपनी आत्मा के उत्थान के उद्देश्य से निष्काम भाव से साधना में लीन रहता है। उसमें कभी कुछ चमत्कारिक प्रभाव नजर आ जाता है तो वह सुनियोजित नहीं वरन् सहज घटित होता है इसीलिए उसकी साधना की ऊँचाई को चमत्कारों से तोलना कदापि उचित नहीं।" कहने की बात नहीं उनके ये विचार सरल रूप से हमें यह अहसास करा जाते हैं कि साधना और संयम चमत्कारों से बहुत ऊपर उठे हुए होते हैं। साधारण जन से लेकर बड़े-बड़े सम्पन्न व्यक्ति भी गुरुदेव के भक्त थे। कई बार लोग कोई बड़ी धनराशि किसी धार्मिक या परोपकारी कार्य में लगाने की इच्छा से गुरुदेव के पास आ पहुँचते। पूछते, सलाह मांगते कि भगवन् ! ये रुपये किस कार्य में लगाऊँ। मगर सांसारिक कृत्यों और बातों से सर्वथा विरक्त रहने वाले उस महामानव का सभी को यही जवाब होता कि भाई, ऐसे कार्यों में तो आप संसारी लोग ज्यादा चतुर हैं। भला रुपयों के मामले में हम क्या बोलें? हमें ऐसी बातों से क्या करना? समय का सदुपयोग और अप्रमाद ! गुरुदेव के जीवन की एक अहम् विशेषता ! समय का पल-पल सार्थक हो, ऐसी चेष्टाएँ सदैव उनकी रहतीं। कई बार रात्रि समय में काव्यमय मानस बन जाता या फिर कुछ लेखन योग्य अच्छे विचार आने लगते...बस तुरन्त कागज और पैंसिल लेकर अन्धेरे में ही उन्हें अनौपचारिक रूप से नोट कर लेते और अगले दिन उन्हें व्यवस्थित रूप दे देते । समय के सदुपयोग की यह आदत यदि उनमें नहीं होती, तो शायद उनकी कई सुन्दर कविताओं और भजनों से हम वंचित रह जाते। यश, ख्याति और प्रतिष्ठा के प्रदर्शन की लालसा से जनसमूह में अधिकाधिक घिरा रहने की होड़ में गुरुदेव
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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