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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
आज उड़ गया है।' आप विस्मय करेंगे यह जानकर कि कुछ समय पश्चात् जोधपुर से आए श्रावक श्री पारसमलजी रेड ने बताया कि बहुश्रुत पंडितरत्न श्री समर्थमल जी म.सा. का स्वर्गवास हो गया है।
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आचार्यप्रवर सन् १९७१ का जोधपुर वर्षावास सम्पूर्ण कर आगोलाई, बालेसर आदि गांवों में धर्मगंगा बहाते हुए विचरण कर रहे थे। इसी दौरान एक दिन आगोलाई गाँव में सोनराज नाम का एक छोटा बालक गुम हो गया । जैसा कि स्वाभाविक था, बालक के परिजन व अन्य ग्रामवासी बहुत चिन्तित हो उठे। सभी ने मिलकर आस-पास, सभी संभावित स्थलों पर बहुत खोज की, किन्तु व्यर्थ । अन्ततः निराश होकर वे लोग आचार्यप्रवर के समक्ष उपस्थित हुए। सारी घटना की सविस्तार जानकारी दी। आचार्य श्री ने ध्यानपूर्वक ब्यौरा सुना, कुछ क्षण चिन्तन किया जैसे कोई दिव्य स्वप्न देख रहे हों और फिर पूर्ण निश्चिन्तता और आत्मविश्वास के साथ बोले- 'चिन्ता मत करो, कल सुबह तक इन्तजार करो।'
हालांकि सहसा विश्वास तो नहीं कर पाए बालक के परिजन, फिर भी 'गुरु तो अन्तर्यामी हैं, इनकी बात कभी व्यर्थ नहीं जा सकती' सोच कर काफी राहत महसूस की। इसी तरह विचारों में डूबते-उतरते रात बीती। सुबह हुई। एक-एक पल युग की तरह कट रहा था। इसी ऊहापोह में एक बार पुनः खोजने निकले तो देखा बच्चा नजदीक ही एक पहाड़ी पर सोया हुआ था। परिजनों की प्रसन्नता का पारावार न रहा और अन्य ग्रामवासी भी गुरुदेव के कथन की यथार्थता देख चकित रह गए।
इधर दरअसल हुआ यह कि बच्चा घूमते-घूमते पहाड़ी पर चला आया । चलते-चलते थक तो गया ही था, वहीं सो गया। ठंडी हवा चल रही थी, थकान तो थी ही, बस गहरी निद्रा आ गई और वह अद्भुत स्वप्नों में खो गया और रात भर वहीं सोता रह गया ।
गुरुदेव के अन्तर्यामी व्यक्तित्व की झलक देता यह अगला प्रसंग वर्तमान उपाध्यायप्रवर के दिल्ली चातुर्मास से सम्बद्ध है, जिसका जिक्र कई बार आपके प्रवचनों में सुनने को मिला है। उनके अपने ही भावों में यह प्रसंग“दिल्ली चातुर्मास का प्रसंग था । विद्यानुरागी श्री गौतम मुनि जी व तपस्वी श्री प्रकाश मुनि जी मेरे साथ । उन्हीं दिनों गुरुदेव के समाचार मिले कि "दिल्ली में श्रावक योग्य और अच्छे हैं किन्तु महानगर होने से क्षेत्र भी बड़ा है। आप सन्त कम हैं। हो सकता है कोई अड़चन भी आए लेकिन काम रुकने वाला नहीं है।”
धीरे-धीरे चातुर्मास काल बीतने लगा। तप, त्याग, संवर, दया, पौषध आदि की धार्मिक लहर वृहद् स्तर पर जन-जन के मन में, जीवन में हिलोरें लेने लगी । यह धर्म- जागृति की लहरें पर्युषण पर्व आते-आते विशाल सागर का रूप धारण कर चुकी थी । अगले दिन से पर्युषण पर्वाधिराज प्रारम्भ होने वाले थे कि यकायक प्रतिक्रमण के पश्चात् श्री गौतममुनिजी की तबीयत बिगड़ गई और इतनी बिगड़ी कि वे घायल कबूतर की तरह तड़फने लगे ।
दूसरी ओर मेरा भी स्वास्थ्य खराब । वमन पर वमन हो रहे और उदरशूल इतना भयानक कि असहनीय सा हो गया। सारे प्रमुख श्रावकगण एकत्र हो गए। सभी चिंतातुर । हम भी विचार में पड़ गए कि कल से पर्युषण प्रारम्भ होने को हैं और सभी के हृदय धर्म के प्रति उत्साह उमंग से भरे हैं। ऐसे में पर्वाधिराज की महत्ता और आवश्यकता के अनुरूप प्रवचन, शास्त्रवचन आदि हम किस प्रकार करेंगे ?
कोई चारा न देख व समय की जरूरत को देखते हुए श्रावक निवेदन करने लगे कि म.सा. डाक्टर ले आवें क्या ?' मगर मैंने कह दिया कि “दवा लेना तो दूर, इस वेला में डाक्टर को दिखाना भी वर्जित है ।" इधर श्री गौतम मुनि जी भी दृढ़ थे। हमारी इस दृढ़ता के समक्ष सभी श्रद्धानत थे, किन्तु मानस में चिन्ता तो बनी हुई थी ही। ऐसे में