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दो महान् दिव्यात्माओं का अद्भुत मिलन
श्रीमती रूपकुंवर मेहता
बीसवीं सदी में मरुधरा में दो महान् दिव्य विभूतियाँ अवतरित हुईं व उन्होंने चहुँ ओर अपना आलोक | फैलाया। उनमें से एक थे जैनाचार्य पूज्य गुरुदेव श्री हस्तीमल जी म.सा. व दूसरी विभूति थी बाळागांव की निराहार योगिनी सती माँ रूप कुँवर जी ।
मुझे दोनों संतों के अत्यन्त समीप रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। दोनों ही महा मानव थे। दोनों ने ही अपने जीवन काल में त्याग व तपस्या का अनुपम इतिहास रचा । दोनों ही अहिंसा के विलक्षण पुजारी थे । गुरु हस्ती के आशीर्वाद से ही मैंने २३ वर्षीतप तीन मासखमण सहित सहर्ष पूरे किये और मेरे सब कठिन अभिग्रह भी फलीभूत हुए ।
बाळा सती जब गुरु हस्ती के पहली बार दर्शनार्थ आई, दूर से ही दंडवत् करती आई । यह दृश्य अद्भुत था। इसके पश्चात् सती माँ कई बार गुरु हस्ती के दर्शन करने उनके चातुर्मास में गई। कई यात्राओं में मैं भी उनके साथ थी ।
एक समय मैं गुरु हस्ती के पीपाड़ चातुर्मास में उनके दर्शनार्थ गई। गुरुवर ने फरमाया कि सती माँ को अपनी मृत्यु का बहुत पहले ही पूर्वाभास हो गया था। सती जी ने मुझे अपनी मृत्यु के पूर्व दर्शन देकर मार्गदर्शन करने को कहा और | भावना प्रकट की कि अन्त समय में मैं वहाँ मौजूद रहूँ । गुरु हस्ती ने फरमाया कि जिस प्रबल भावना से रूपकुंवर जी ने उनसे वादा लिया था वह मना नहीं कर सके ।
बाला सती ने कार्तिक शुक्ला १४ सन् १९८६ को यह नश्वर शरीर त्याग दिया। पूनम को उनका पार्थिव शरीर अग्नि को समर्पित हुआ । चातुर्मास कल्प के अनुसार जैन श्रमण विहार नहीं कर सकते, अतः आचार्यश्री | प्रत्यक्षतः बालासतीजी को दर्शन व पाथेय देने हेतु शरीर से नहीं पधार सके । तथापि बाला सतीजी को शरीर छोड़ने के पूर्व आचार्य श्री ने मांगलिक प्रदान किया । सहज श्रद्धाभिभूत रूपकुंवरजी ने कर युगल जोड़कर महाप्रयाण के लिये विदा मांगी।
'रूप श्री' ४६, अजीत कालोनी, जोधपुर