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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ।
था कि अक्षय तृतीया को विवाहित द्वितीय पत्नी (प्रथम पत्नी के स्वर्गस्थ होने के अनन्तर नवोढ़ा) के साथ चांदी के थाल में दाल का हलवा एक साथ जीमने हेतु बैठे दम्पती आजीवन शीलव्रत ग्रहण करे तो आहार ग्रहण करना, जैसे दुष्कर अभिग्रह भी आपके सहज ही फलीभूत हुए। जिस दम्पती के व्रत-ग्रहण से आपका यह दुष्कर अभिग्रह फला, वे थे ब्यावर के सुश्रावक श्री आनन्दराज जी शाह एवं उनकी नवोढा धर्मपत्नी। यही नहीं जिस किसी को भी आपने तेला करने का कह दिया, उसकी विपत्ति का भी सहज निवारण हो जाता।
स्वामीजी श्री चन्दनमलजी महाराज चन्दन के समान शीतल, शान्त-दान्त-गम्भीर प्रकृति के महापुरुष थे। आपकी निष्पक्षता, गम्भीरता एवं प्रशान्तता जग जाहिर थी। यही कारण था कि पूज्य श्री हुकमीचन्दजी महाराज की परम्परा में विवाद होने पर पूज्य आचार्य श्री श्रीलालजी महाराज का भी आग्रह रहा कि स्वामी श्री चंदनमलजी महाराज मध्यस्थ बन कर जो भी निर्णय दें तो मैं सहर्ष स्वीकार करूँगा।
पूज्य आचार्य श्री विनयचंदजी महाराज के शासनकाल में श्रेष्ठिवर्य श्री सुजानमलजी की दीक्षा ने अनाथी : मुनिराज के आदर्श को मानो उपस्थित कर दिया। नित्यप्रति पुष्प शय्या पर शयन करने वाले, गोठ गूगरी के शौकीन, । इत्र सेवन करने वाले, उन श्रेष्ठिवर्य ने घुटनों में “दर्द दूर हो जाने पर पूज्य श्री के पास दीक्षा ले लूंगा” ऐसा चिन्तन किया तो सहज ही पीड़ा दूर हो गयी। संकल्पधनी वह महापुरुष पीछे नहीं हटा व पूज्यपाद के चरणों में दीक्षा लेकर कल का श्रेष्ठी जयपुर की गलियों में भिक्षावृत्ति हेतु घूम कर अपने को धन्य मानने लगा। कल तक अनेकों सेवकों द्वारा सेव्य, राग का धनी, वह कर्मशूर आज संत महापुरुषों की वैय्यावृत्त्य कर अपने को धन्य समझने लगा। धन्य हैं ऐसे संकल्पधनी महापुरुष । धन्य है पूज्य आचार्य प्रवर का प्रभाव व पुण्यशालिता। ऐसे ही महापुरुषों के लिये पूज्य श्री भूधर जी महाराज ने कह दिया
रंग महल में पोढते, जे कोपल सज बिछाय। ने कंकरीली भूमि में, साव संवर काय॥...वे गुम घट रस भोजन जीमत, जे सुवर्ण थाल मंझार।
अब वे सब छिटकाय न, प्रामुक लेन आहार ।। व गुरु बहुश्रुत आचार्य श्री विनयचंदजी म.सा. के पश्चात् पूज्य श्री शोभाचंदजी महाराज साहब परम्परा के आचार्य बने । आपका जन्म मरुधरा की राजधानी, रत्नवंश के पट्टनगर जोधपुर में संवत् १९१४ कार्तिक शुक्ला |पंचमी को श्रेष्ठिवर्य श्री भगवानदास जी चामड़ की धर्मशीला धर्मपत्नी पार्वती देवी की रत्नकुक्षि से हुआ। सौभाग्य पंचमी को जन्म लेने के कारण आपका नाम शोभा चंद रखा गया। बाल्यकाल से ही आप बाल सुलभ चेष्टाओं में चंचलता के स्थान पर गंभीरता धारण करने वाले थे। पाठशाला में प्रवेश कराये जाने पर भी आप विद्यालय या घर में अपना अधिकतम समय मौन और एकान्त में ही व्यतीत करते थे। आपकी इन प्रवृत्तियों से खिन्न पिता ने आपको १० वर्ष की छोटी वय में ही धन्धे में लगा दिया, पर आपको तो सन्तों के चरणों में अपनी जिज्ञासाओं का समाधान पाने व ज्ञान सीखने में ही अपना समय बिताकर परम आनन्द होता। पुण्योदय से आपको पूज्यपाद आचार्य श्री कजोडीमलजी म.सा. के पावन दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अद्भुत व्यक्तित्व के धनी, साधना की साक्षात् प्रतिमूर्ति और ब्रह्मचर्य की अपूर्व शक्ति के धारी आचार्य श्री कजोड़ीमलजी महाराज के वैराग्यपूर्ण उपदेश को सुनकर बालक शोभाचंद ने संयमपथ पर आरूढ होने का निश्चय किया, पर दीक्षा की अनुमति आसान न थी। आज्ञा प्राप्त करने में कई अड़चनें व बाधाएं आईं, पर आपकी दृढ लगन और निश्चय को देखकर अन्तत: माता-पिता को आज्ञा देनी पड़ी। तेरह वर्ष की अवस्था में एक विशाल महोत्सव में जयपुर में वि.सं. १९२७ माघशुक्ला पंचमी