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________________ मेरे परम आराध्य • श्री अमरचंद कांसवा आचार्यप्रवर १००८ श्री हस्तीमलजी म.सा. का स्मरण आते ही मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठता है और हो भी क्यों नहीं, उन्होंने मेरे जैसे पामर प्राणी को सन्मार्ग पर लगाया। ज्ञानीजन फरमाते हैं कि उपदेश के बजाय आचरण का प्रभाव अन्य व्यक्ति पर स्थायी व जीवन में परिवर्तन लाने वाला होता है। ऐसा ही प्रभाव आचार्यप्रवर का मेरे | जीवन पर पड़ा। __ बात संवत् २०१७ के अजमेर चातुर्मास की है। पिताजी श्री मोतीलालजी काँसवा के स्वर्गवास के पश्चात् || | इसी चातुर्मास में स्वतंत्र रूप से प्रथम परिचय हुआ। पूछा 'कांई नाम है'? मैंने अर्ज किया 'अमरचंद कांसवा' ।। 'किणरो लड़को है ?' उत्तर दिया मोतीलालजी कांसवा को । पुन: पूछा 'धर्म ध्यान काई होवे?' मैंने अर्ज किया 'एकाध माला वगैरह हो जावे ।' 'आश्चर्य मिश्रित भाषा में 'कठे मोतीलालजी, कठे तूं उणारो पाट लियो है। ' मैंने अर्ज किया गुरुदेव फरमावो, कोई आज्ञा ? प्रतिदिन सामायिक स्वाध्याय होना चाहिये। आज करीब ३७ वर्ष हो गये, अजमेर में रहते हुए कभी स्वाध्याय सामायिक से वंचित नहीं हूँ। आश्चर्य होता है उस महान् योगी के वचनों पर कि कितना ओज वाणी में, शायद मैंने सोचा भी नहीं होगा कि मेरे जीवन में सामायिक स्वाध्याय की ज्योति प्रज्वलित होगी। संवत् २०४२ माह सुदी २ , १० फरवरी १९८६ को आचार्य प्रवर का दीक्षा दिवस अजमेर में मनाने का निश्चय हुआ। समय पर लाखन कोटड़ी पंडाल पधारना हुआ। माह सुदी १ को रात को मैंने वहीं संवर किया। प्रात: ३ बजे निद्रा त्यागी। विचार हुआ कि गुरुदेव जिनका मेरे ऊपर इतना उपकार है क्या श्रद्धा सुमन चढाऊँ? त्यागी जीवन से त्याग की ही प्रेरणा मिलती है। चिंतन चला कि सब आनन्द है, क्यों न शील व्रत ग्रहण किया जाय । प्रात: संवर पालकर घर पहुँचा। धर्मपत्नी से सलाह की। सहज स्वीकृति मिली। व्याख्यान में दोनों खड़े हो गये। हमारे साथ श्री मोतीलालजी कटारिया व श्री चांदमलजी गोखरु भी थे। गुरुदेव ने तीनों को नियम करवाया। त्यागी महान आत्मा के श्रीमुख से दिलाये गये नियम का सहजता से पालन हो रहा है। संवत् २०४३ के पीपाड़ शहर के चातुर्मास में आयोजित शिविर में आचार्य प्रवर ने फरमाया अमरचंद अब आगे कांई ?” मैने अर्ज किया गुरुदेव की आज्ञा शिरोधार्य । अत: फरमाया 'जमीकंद का कतई त्याग।' तबसे बराबर नियम का पालन सहजता से हो रहा है। यों कह दूँ कि वे मेरे जीवन निर्माता थे, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ऐसे महान् उपकारी गुरुदेव के चरणों में भाव श्रद्धा युक्त शत-शत वन्दन । बात संवत् २०३४ की है। अजमेर में चातुर्मास था आचार्यप्रवर का। भोजन-व्यवस्था का संयोजक मैं था। इस वर्ष संवत्सरी २ मनाई गई। ____ मैं सन् १९६३ से स्वाध्यायी के नाते पर्युषण में सेवा देने जाता था, लेकिन भोजन-व्यवस्था की जिम्मेदारी के कारण जाना नहीं हुआ।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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