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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड पूज्य श्री ने स्वयं निर्मल संयम का पालन किया तथा साधु समुदाय का भी निरतिचार संयम-पालन में पथ । प्रशस्त किया। वि.सं. १८५८ कार्तिक शुक्ला अष्टमी को मेड़ता नगर में आपका स्वर्गगमन हुआ। आपके शिष्यों में मुनि श्री दौलतरामजी महाराज सा, तपस्वी श्री प्रेमचन्द जी महाराज सा, मुनि श्री लक्ष्मीचन्दजी महाराज सा, मुनि श्री ताराचन्दजी महाराज सा, पूज्य श्री दुर्गादास जी म.सा. एवं जैनाचार्य पूज्य श्री रत्नचन्दजी म.सा. आदि प्रमुख थे। मुनि श्री दौलतरामजी महाराज जितेन्द्रिय महापुरुष थे। आपने चालीस वर्ष तक पाँचों विगयों (घी, दूध, तेल, || दही व शक्कर) तथा नमक का त्याग किया। आप रुक्ष आहार करते थे। आपने अपने सुन्दर अक्षरों में कई शास्त्रों की प्रतियां लिखीं। मुनि श्री प्रेमचन्दजी महाराज घोर तपस्वी थे। तपस्या के कारण आपको कई सहज सिद्धियाँ प्राप्त हुईं। आपके जीवन की कई चामत्कारिक घटनाएँ प्रसिद्ध हैं। एक बार आप सोजत पधारे, नगर में पहुँचते पहुँचते संध्या || का समय हो गया, स्थान की गवेषणा करने पर कुछ लोगों ने कुतूहलवश आपको एक जनशून्य हवेली में ठहरा || दिया। भक्तों द्वारा आकर निवेदन करने पर भी आपने स्थान परिवर्तन नहीं किया। करीब डेढ प्रहर रात्रि व्यतीत होने || पर ऊपर से बड़े-बड़े पत्थर आने लगे। इधर-उधर कोई दृष्टिगत न होने पर आपभी ऊपर चढ़े जहां एक कमरे में || स्वच्छ शय्या पर शुभ्र वस्त्रों में एक पुरुष को देखा। तपस्वी जी महाराज ने निडरता से कहा- “सिंघी जी ! रात्रि में | क्यों उत्पात मचाते हो, हम इजाजत लेकर यहां ठहरे हैं। हम प्रात:काल यहां से जा सकते हैं, पर रात्रि में तो प्रलयंकर | उत्पात होने पर भी नहीं जा सकते ।" आपकी निर्भीकता से देव अत्यंत प्रभावित हुआ और उसने कहा -“आप यहाँ खुशी से विराजें, पर ऊपर कोई न आवे।” प्रात: लोगों ने आपको सकुशल देखा तो उनके आश्चर्य की सीमा न रही। इस प्रत्यक्ष चमत्कार पूर्ण आत्मबल से आपके प्रति जनता की श्रद्धा और प्रगाढ हो गई। अब तो उसी हवेली || | में व्याख्यान होने लगे, नर-नारी निडर हो आने लगे। एक दिन किसी बालक ने अशुचि कर दी तो अचानक ही वहाँ | पर भयंकर काला नाग निकल पड़ा। लोग आशंकित थे। पर तपस्वी जी महाराज के यह कहते ही “सिंघीजी ! तुमने तो खुली इजाजत दी थी, फिर यह विपरीत आचरण कैसे ?” सर्प अदृश्य हो गया। इस घटना से चमत्कृत जनता में आपके तप अतिशय व साधना की चर्चा स्वाभाविक थी। मुनि श्री लक्ष्मीचन्द जी महाराज आदर्श साधक थे। आपने पैंतीस वर्षों तक केवल एक ही चादर से निर्वाह | | किया। मुनि श्री ताराचंदजी महाराज बड़े तपस्वी व उत्कृष्ट क्रियापात्र संत महापुरुष थे। आपने पाँच विगयों के त्याग कर रखे थे और बेले-बेले पारणा करते थे। संयम का आप अत्यन्त सूक्ष्मता व सावधानी से पालन करते थे। स्वर्गवास की रात्रि में ही आपने स्वप्न में पूज्य श्री गुमानचंदजी महाराज को क्रियोद्धार का निवेदन किया। पूज्य श्री दुर्गादास जी महाराज बाल ब्रह्मचारी महापुरुष थे। आपके कंठ में माधुर्य, वाणी में सरसता, विचारों में परिपक्वता व हृदय में उदारता के साथ आपको शास्त्रों का गहन अभ्यास था। आप निरन्तर एकान्तर तप किया करते थे। आप अच्छे मर्मज्ञ कवि थे। आपकी काव्य रचनाएं 'दुर्गादास पदावली' के नाम से प्रकाशित हुई हैं। आप महान् भाग्यशाली व प्रभावशाली महापुरुष थे और आपका क्रियोद्धार में महत्त्वपूर्ण सहयोग रहा। ___ आचार्य पूज्य श्री गुमानचन्दजी म.सा. के पट्ट को उनके सुयोग्य शिष्य, तीक्ष्ण प्रतिभा के धनी पूज्य श्री रत्नचन्द जी म.सा. ने सुशोभित किया। आपका जन्म वि.सं. १८३४ वैशाख शुक्ला पंचमी को कुड़गांव में धर्मप्रेमी श्री लालचन्दजी बड़जात्या की धर्मपत्नी हीरादे की रत्न कुक्षि से हुआ। वि.सं. १८४० में आपको नागौर निवासी
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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