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(तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
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थे। आपकी प्रेरणा से ही स्वाध्याय संघ की स्थापना हुई, जिसका उद्देश्य गांव-गांव में, प्रत्येक व्यक्ति में स्वाध्याय का प्रचार प्रसार करना है। पोरवाल - पल्लीवाल आदि क्षेत्रों में स्वाध्याय से ही जागृति आई है । इन क्षेत्रों में पहले जहाँ दो चार भी वक्ता नहीं थे, वहाँ आज शताधिक वक्ता तैयार हो गये हैं।
ध्यान तप तो आपके जीवन का अंग ही था। प्रात:काल सूर्योदय के समय, मध्याह्न में १२ से १ बजे तक तथा रात्रि में शयन के समय आपकी ध्यान-साधना नियमित चलती थी। चतुर्विध संघ में स्वाध्याय व सामायिक की तरह ही ध्यान साधना चालू हो, इसके लिये मुझे आपसे बराबर प्रेरणा मिलती रही। आप फरमाते - "स्वयं भी ध्यान-साधना करो तथा दूसरों को भी ध्यान-सिखाओ।” अत: आपके सान्निध्य में अनेक ध्यान शिविर लगाये गये।
व्युत्सर्ग तप ध्यान-साधना का अगला चरण व आभ्यंतर तप का अंतिम चरण है। ध्यान-साधना कर्ता-भोक्ता भाव से छूटने व ज्ञाता द्रष्टा बनने की साधना है। व्युत्सर्ग तप देहातीत-लोकातीत होने की साधना है। इस साधना में साधक इन्द्रिय एवं लोक के प्रभाव से मुक्त हो, असंग हो, इनसे परे हो जाता है। फिर बुद्धि सम हो अपने में ही लीन हो जाती है तथा चिंतन-मनन संकल्प-विकल्प की आवश्यकता नहीं रहती। व्युत्सर्ग-साधना का उत्कृष्ट रूप है संलेखना संथारा । आचार्यप्रवर ने जबसे संथारा लिया तबसे पूर्ण होश में होते हुए भी आप तन-मन-वचन से निश्चेष्ट रहे । अपनी ओर से करवट भी न ली, न किसी से बात की और न कोई संकेत ही किया। बाह्यतप से आभ्यंतर तप अधिक महत्त्वशाली है और आभ्यंतर तप में व्युत्सर्ग तप सर्वोत्कृष्ट तप है। यह मुक्ति में साक्षात् कारण है। आचार्य श्री ने बाह्य-आभ्यन्तर सभी तपों का अनुपालन किया। आप महान् तपस्वी थे।
वीर्याचार अथवा पुरुषार्थ-पराक्रम के आप धनी थे। 'समयं गोयम ! मा पमायए' यह सूत्र आपके जीवन में चरितार्थ था। आचार्य श्री का प्रात: से सायंकाल तक सारा क्रिया-कलाप मुक्ति की प्राप्ति हो, इसी के लिए होता थी। • महत्त्व गुण पूजा का है, व्यक्ति पूजा का नहीं
सवाईमाधोपुर में आचार्यप्रवर श्री हस्तीमलजी महाराज साहब की जयन्ती मनाई गयी थी। प्रात:काल की धार्मिक सभा में वक्ता आचार्य श्री के गुणों से प्रेरणा लेने पर जोर देते रहे। सायंकाल प्रतिक्रमण के पश्चात् आचार्यप्रवर से मैंने निवेदन किया कि मेरे दादा श्री भूरालालजी लोढा कहा करते थे कि जीवित (छद्मस्थ) व्यक्ति की प्रशंसा नहीं करनी चाहिए। क्या उनका यह फरमाना उचित है?
_आचार्य श्री ने फरमाया कि पहले सब संत भी यह ही कहते थे और यह उचित ही है। मुझे आचार्य श्री के मुख से यह बात सुनकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई, कारण कि मुझे डर था कि कहीं आचार्य श्री इस कथन का यह अर्थ नहीं ले लेवें कि आज जो मेरे गुणगान किए गए, वे इसे पसंद नहीं हैं। आचार्य श्री के उक्त कथन को सुनकर मुझे लगा कि आचार्य श्री प्रशंसा के भूखे नहीं हैं, प्रत्युत प्रशंसा सुनना पसंद भी नहीं करते। प्रात: काल की धार्मिक-सभा में भी आपकी प्रशंसा करने वाले वक्ताओं को आप बार-बार टोक रहे थे। मुझे लगा कि मेरे मन का डर एक भ्रम था जो आचार्य श्री के उक्त कथन को सुनकर दूर हो गया।
पंचाचार के उत्कृष्ट आराधक होने के साथ आप चतुर्विध संघ के हित के लिए सदैव तत्पर रहते थे। आचार्य श्री के गुणों की थाह नहीं। महान् आचारवान् आचार्यप्रवर को शतश: सहस्रशः नमन ।
-अधिष्ठाता, श्री जैन सिद्धान्त शिक्षण संस्थान
साधना भवन, बजाज नगर, जयपुर)