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(तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
५८१) समालोचना' पुस्तक प्रकाशित कर समुचित खण्डन किया।
उन दिनों केकड़ी भारतवर्ष में शास्त्रार्थ का प्रमुख स्थान था। यहाँ आर्य समाज, दिगम्बर, श्वेताम्बर, मूर्ति | पूजक एवं स्थानकवासी समाज में परस्पर अखिल भारतीय स्तर पर विधिवत् शास्त्रार्थ होते रहते थे। केकड़ी उस समय वस्तुत: दिगम्बर पंडितों व शास्त्रियों का गढ था। पंडित श्री मूलचन्दजी श्री श्रीमाल प्रमुख विद्वान थे। इनकी शास्त्रार्थ में विशेष रुचि थी। वे दिगम्बर एवं श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज को स्थानकवासी समाज के साधुओं से शास्त्रार्थ करने के लिय प्रोत्साहित करते रहते थे। उस समय जो भी स्थानकवासी साधु- साध्वी केकड़ी आते, उन्हें शास्त्रार्थ करने के लिये ललकारा जाता था। अत: स्थानकवासी साधु केकड़ी में आते हिचकिचाते थे।
संयोग से जब आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. का केकड़ी पधारना हुआ तो केकड़ी के स्थानकवासी समाज की ओर से श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज को आचार्य श्री से अपने प्रश्नों का समाधान करने के लिये लिखा गया। इस पर मूर्तिपूजक समाज ने अपने प्रश्न शास्त्रार्थ के रूप में भेजे । दिनांक १६ फरवरी सन् १९३३ से एक सप्ताह तक शास्त्रार्थ चला। पंडित श्री मूलचन्द जी शास्त्री को दोनों पक्षों की ओर से निर्णायक चुना गया। आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. ने श्वेताम्बर समाज की ओर से पूछे गए गूढ से गूढ प्रश्नों के उत्तर प्रांजल संस्कृत भाषा में दिए। आचार्य श्री के प्रकाण्ड पाण्डित्य पूर्ण समुचित समाधानों से निर्णायक पंडित जी सहमत ही नहीं, अत्यन्त प्रभावित भी हुए। उन्होंने निर्णय दिया कि आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. के उत्तर जैनधर्म की दृष्टि से बहुत सटीक एवं समुचित हैं। शास्त्रार्थ के पश्चात् केकड़ी के दिगम्बर एवं मूर्तिपूजक सम्प्रदाय का जोश ठंडा पड़ गया और स्थानकवासी सन्त-सतियों को शास्त्रार्थ के लिए ललकारना बंद हो गया। इस शास्त्रार्थ में केकड़ी स्थानकवासी समाज के मन्त्री सुश्रावक श्री धनराजजी नाहटा ने प्रमुख भूमिका निभायी।
आचार्य श्री की उम्र उस समय बाईस-तेईस वर्ष की ही थी। इतनी छोटी वय में दिग्गज पण्डितों से शास्त्रार्थ करना और विजय प्राप्त करना आचार्यप्रवर के विशिष्ट ज्ञान का सूचक रहा। • दर्शनाचार , चारित्राचार, तपाचार एवं वीर्याचार के उत्कृष्ट आराधक
आचार्य श्री सम्यग्दर्शन और संवेदनशीलता रूप दर्शन इन दोनों ही दर्शनों के उच्च स्तरीय आराधक थे। आपके हृदय में दया, करुणा, अनुकंपा उमड़ती थी, जो सर्व हितकारी भाव के रूप में प्रकट होती थी। जो भी आपके सम्पर्क में व दर्शनार्थ आता, उसके दुःख से द्रवित हो उसे दोषों के त्यागने का कोई न कोई नियम दिलाने का आपको ध्यान रहता था। आप दया के सागर एवं करुणा के भण्डार थे।
समस्त दुःखों की जड़ हैं - राग, द्वेष, मोह, विषय, कषाय आदि दोष । आचार्य श्री इन दोषों से बचने के लिये स्वयं तो सतत जागरूक रहते ही थे, साथ ही अन्य व्यक्ति भी इन दोषों व समस्त दुखों से मुक्ति पायें, इसके लिये सदा प्रेरणा देते रहते थे।
चारित्राचार के आप उत्कृष्ट आराधक थे। आप इन्द्रियजयी एवं कषाय-विजयी थे। प्रतिकूल प्रसंग आने पर भी आप क्रुद्ध नहीं होते थे, क्षमा के सागर थे। यदि कोई दोषी व्यक्ति अपने दोष को आप से निवेदन करता तो आप उसे बिना बुरा भला कहे अत्यन्त करुणा व प्रेम से उसके दोष-निवारण का मार्ग बतलाते थे। अनेक अपराधी मनोवृत्ति के व्यक्तियों ने आपकी शरण में आकर जीवन को अपराध मुक्त व उन्नत बनाया। आपका व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि प्राय: कोई भी व्यक्ति आपके समक्ष अभद्र, अशिष्ट व्यवहार तथा अनादर करने का साहस