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________________ संस्मरणों का वातायन . न्यायाधिपति श्री जसराज चोपड़ा बचपन में पूज्यपाद आचार्यप्रवर श्री हस्तीमलजी म.सा. के दर्शन सर्वप्रथम कहाँ किये, याद नहीं। पचपदरा और बालोतरा में ही संभवत: प्रथम दर्शन हुए। हम पाँच भाई हैं। अत: जब-जब भी हम दर्शन करने जाते तो आचार्य श्री कहते 'आओ पंच भैया'। जोधपुर के सिंहपोल में श्रमण संघ के मन्त्रिमण्डल एवं प्रमुख संतों का | चातुर्मास था, तब मैंने जो दर्शन किए उसकी स्मृति आज भी तरोताजा है। इस चातुर्मास में आचार्यप्रवर श्री आत्माराम जी महाराज साहब प्रज्ञाचक्षु होने से नहीं पधार पाये थे। उपाचार्य पूज्य गणेशीलाल जी म.सा. के नेतृत्व में यह चातुर्मास सम्पन्न हुआ ।सारा साधु मंत्रिमंडल जब पाट पर विराजता था तब दृश्य देखने लायक होता था। | सिंहपोल के मैदान के बीच लम्बे पाट लगते थे जिन पर सभी संत मुनिवर विराजते थे। पूज्य गणेशीलाल जी म.सा. के अतिरिक्त पूज्य मदनलाल जी म.सा, पूज्य हस्तीमल जी म.सा, पूज्य कवि अमर मुनि जी म.सा, पूज्य समर्थमल जी म.सा, पूरण बाबाजी, कड़क मिश्री मल जी महाराज, मधुकर मिश्रीमल जी म.सा. आदि बड़े-बड़े संत इस चातुर्मास में सम्मिलित थे। श्रमण संघ की एक संवत्सरी एवं कतिपय विवादास्पद विषयों पर विचार-विमर्श करके सर्वानुमति पर पहुँचना था। पूज्य समर्थमल जी म.सा. एवं पूरण बाबाजी श्रमण संघ में सम्मिलित नहीं हुए थे, परन्तु व्याख्यान में साथ बैठते थे। वार्तालाप इस बाबत भी चालू था । व्याख्यान आदि में सिंहपोल ठसाठस भरा रहता था। एक साथ इतने प्रमुख संतों का एक स्थान पर चातुर्मासिक ठहराव उसके पश्चात् देखने को नहीं मिला। पूज्य गुरुदेव के चमकते नेत्र, शांत गम्भीर मुद्रा और समस्याओं का आगमसम्मत समाधान आकर्षक होता था। वे तब भी सभी संतों के द्वारा पूरी तरह आदरास्पद और क्रिया की वारणा-सारणा में निष्णात संत माने जाते थे। यह सन् १९५३ की बात है। उसके पश्चात् पूज्य आचार्यप्रवर श्री हस्तीमलजी म.सा. के दर्शन एक दो बार जोधपुर में ही हो पाए। फिर मैं १९५६ में राजकीय सेवा में संलग्न होने के कारण जोधपुर से बाहर रहा। सन् १९६९-७० में अजमेर में पूज्य गुरुदेव का पदार्पण हुआ, तब मैं वहां सीनियर सिविल व सहायक सेशन जज था। लाखनकोटडी दर्शन व व्याख्यान हेतु जाता था। पूज्य गुरुदेव का विहार किशनगढ की तरफ होना था, मैं | तब सी-४ मीरशाह अली कॉलोनी में रहता था। विहार के समय मैंने निवेदन किया कि मेरा निवास स्थल रास्ते में ही है, आप वहाँ विराजकर मुझे कृतार्थ करें। गुरुदेव ने स्मितवदन होकर कहा - "क्या भेंट चढाओगे?” मेरे मुख से | निकला “जो आप आदेश दें।” गुरुदेव परम कृपा कर बंगले पधारे । मैं तब केवल माला फेरता था, कभी कभी सामायिक कर लेता था। आचार्य श्री ने मेरी धार्मिक क्रिया का लेखा-जोखा लिया। दूसरे दिन वहाँ से प्रस्थान करने के पूर्व गुरुदेव ने पृच्छा की, हमारी भेंट का क्या हुआ? मैं हाथ जोड़कर खड़ा हो गया - अन्नदाता ! जो आपका आदेश। पूज्य गुरुदेव ने फरमाया हम जो कहेंगे वह मान लोगे? मैंने कहा - अन्नदाता का हुक्म सिर आँखों पर होगा। गुरुदेव ने फरमाया- ब्रह्मचर्य की मर्यादा और प्रतिदिन एक सामायिक कर सकोगे? आप नियम दिला दें एवं निभाने योग्य चरित्र बने ऐसा आशीर्वाद दें। हम दोनों पति-पत्नी ने नियम अंगीकार कर लिया। उन्हीं के द्वारा प्रदत्त नियम का प्रताप है कि मैं इतना स्वाध्याय कर पाया। गुरुदेव ने फरमाया था कि सामायिक में आधा घण्टा स्वाध्याय अवश्य करना। अत: सामायिक ४८ मिनिट की न होकर १ घंटे की हो जाती थी। किन्तु इस नियम के
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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