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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
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| को रोकने के लिए योजनाबद्ध कार्यक्रम बनाया जाये। कई बार ऐसा लगता है कि हमने अहिंसा के निषेधात्मक पक्ष पर अधिक बल दिया है और उसका सकारात्मक पक्ष उपेक्षित रहा है । मेरे मन में इस सम्बन्ध में प्रायः शंका उठा | करती थी । एक दिन जोधपुर में मैं दर्शन करने गया तब आचार्य श्री एक माली परिवार में ठहरे हुए थे । वहाँ कोई संवाददाता आचार्य श्री से बातचीत कर रहा था। बातचीत के बाद जब मैं आचार्य श्री के पास गया तो आचार्य श्री ने मुझसे कहा कि आज तो एक अखबार वाले ने मुझे निरुत्तर कर दिया। मैंने पूछा कैसे ? आचार्य श्री ने कहा | कि अखबार वाला पूछ रहा था कि आपकी अहिंसा कहां तक जाती है। मैंने कहा - प्राणी मात्र तक। इस पर वह | बोला- यदि किसी माँ द्वारा त्याज्य शिशु सड़क पर मिल जाये तो आप क्या करेंगे ?
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तब मैंने आचार्य श्री से निवेदन किया कि हम श्रावकों का तो कर्तव्य बनता है न ? क्यों न ऐसे बच्चों के | रक्षण, लालन-पालन और जीवन - निर्वाह के लिये अनाथालय बनाये जाएँ ।
आचार्य श्री ने केवल इतना कहा- सोचो । और तब मुझे लगा कि मेरी शंका का समाधान हो गया । | अहिंसा का सकारात्मक पक्ष सेवा, दया और करुणा में है और इस क्षेत्र में समाज को आगे बढ़ना चाहिए । आचार्य श्री की प्रेरणा से ही 'बाल शोभा' नाम से एक अनाथालय बन गया, जहाँ वर्तमान में करीब ३२ बच्चे रह रहे हैं और ७० तक बच्चे रखने की अब योजना है। समाज की ओर से ऐसे १० अनाथालय खोलने की योजना भी है।
विकलांगों का जीवन भी स्वावलम्बी और सुखी बने, इस दिशा में भी आचार्य श्री की प्रेरणा बनी रही । | आचार्य श्री के जलगाँव चातुर्मास में विकलांगों का एक शिविर आयोजित किया गया। आचार्य श्री जंगल जाकर | आ रहे थे। मैंने आचार्य श्री से शिविर स्थल की ओर पधारने का निवेदन किया। आचार्य श्री पधारे और अपनी मांगलिक दी। आचार्य श्री की मांगलिक सुनकर कार्य शुरू कर दिया गया। आज महावीर विकलांग सहायता | समिति का कार्य देश विदेश में तेजी से बढ़ता जा रहा है। आचार्य श्री का इस कार्य में हमेशा आशीर्वाद रहा ।
विधवाओं, परित्यक्ताओं, प्रताड़ित पीड़ित महिलाओं की सहायता के लिये भी एक व्यापक योजना जोधपुर में क्रियान्वित की गई है। अन्य स्थानों पर भी यह योजना चालू हो, इसके लिए प्रयत्न अपेक्षित है।
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पीपाड़ चातुर्मास में आचार्य श्री का संकेत था कि स्वाध्यायियों से सेवा के बारे में बात की जाये । स्वाध्यायियों की बड़ी शक्ति हमारे पास है। सन्त सतियों के चातुर्मास से वंचित क्षेत्रों में पर्युषण के दिनों में जाकर | वे धर्माराधना में महत्त्वपूर्ण सहयोग और प्रेरणा देते हैं । उनका उपयोग सेवा के कार्य में हो, यह आचार्य श्री की भावना थी । सेवा निष्काम भाव से हो, इसके लिये संगठन और सम्पत्ति मुख्य नहीं हैं। मुख्य है सेवा की भावना और सहृदयता । पीपाड़ में एक स्वाध्यायी अध्यापक मुझे ऐसे मिले, जो अपने नेत्रहीन चपरासी को, जो प्रति दिन ३० मील दूर अपने कार्य पर जाता था, उसे बस स्टैण्ड से स्कूल और स्कूल से बस स्टेण्ड तक छोड़ा करते थे । ज | ऐसी करुणा की भावना का हृदय में उद्रेक होता है, तब कहीं सेवा कार्य हो पाता है। आचार्य श्री ने साधु-मर्यादा में रहते हुए इन सब कार्यों के लिए प्रेरणा दी, जिसके फलस्वरूप समाज में सेवा कार्यों से जुड़ने वाले भाई-बहिनों की | संख्या बहुत अधिक है । कुछ उल्लेखनीय नाम हैं- श्रीमती इचरजदेवी लूणावत, श्रीमती इन्दरबाई सा, सज्जनबाई सा, | सुशीला बोहरा, श्री एवं श्रीमती एम. सी. भण्डारी, दलीचन्दजी जैन, रतनलालजी बाफना, पूनमचन्दजी हरिश्चन्दजी बडेर, इन्दरचन्दजी हीरावत, उम्मेदमल जी जैन, सी. एल. ललवाणी, सुमतिचन्द जी कोठारी, पारसमलजी कुचेरिया आदि ।
आचार्य श्री के संयमी जीवन और साधनानिष्ठ व्यक्तित्व का ही यह प्रभाव था कि शिक्षा, चिकित्सा,