________________
नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ५७२ के घर जाना भगवान का घर आना माना जाता था। किले से जब रात को जसरूपजी सा. वापस आये तो सर्वप्रथम रत्नचन्दजी म.सा. को जोधपुर नरेश की स्वीकृति की सूचना यह समझ कर दी कि इससे म. सा. अत्यधिक प्रसन्न होंगे। उनकी मनोभावना शायद यह भी रही हो कि महाराज सा. समझेंगे कि उनका श्रावक कितना बड़ा व्यक्ति हो गया है कि जो नरेश को भी अपने घर ला सकता है। पर आचार्य रत्नचन्दजी म.सा. ने इस पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कि और अन्धेरा होने के कारण उनके भाव भी चेहरे से नही पढ़े जा सके।
दूसरे दिन सवेरा होते ही महाराज सा. ने विहार कर दिया। नौकर ऊपर भागा और जसरूपजी सा. को इसकी सूचना दी। जसरूपजी सा. सकते में आ गये और घोड़े पर बैठकर महाराज सा. के पीछे पहुंचे। उन्होंने आचार्य श्री रत्नचन्दजी म.सा. से पुन: अपनी हवेली पर आने का निवेदन किया तथा यह भी बताया कि जोधपुर नरेश जिन्होंने उनके (आचार्य श्री के ) प्रति श्रद्धा व्यक्त की थी, वे इसे अपनी घोर अवमानना समझेंगे।
इस पर आचार्य श्री रत्नचन्दजी म.सा. ने निसंग और निर्भीक होकर कहा - हमने तो संसार छोड़ दिया। कौन राजा? किसका राजा ? सांसारिक प्रपंचों में हमें मत फंसाओ। हमारे पास तो ये काष्ठ पात्र हैं और राजा के पास छत्र है। पात्र-पति व छत्र-पति का क्या संग?
___ आचार्य श्री का यह उत्तर सुनकर श्री जसरूपजी महाराज मानसिंहजी के पास गये और आचार्य श्री व अपने बीच हुआ पूरा वार्तालाप उन्हें सुनाकर क्षमायाचना की। महाराज मानसिंह बहुत प्रभावित हुए और यह कहा कि तुम्हारे गुरु तो पक्के फक्कड़ हैं।
आचार्य श्री रतनचन्दजी म.सा. का यह फक्कड़पन, अनासक्त भाव और नि:संगपना मैंने आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. के जीवन में भी सदैव देखा। राजनीतिज्ञों, श्रीमन्तों और सत्ताधारियों से वे कभी प्रभावित नहीं हुए। मान-सम्मान की उन्हें कभी परवाह नहीं रही। उनकी दृष्टि में राजा-प्रजा, अमीर-गरीब, वर्ण-जाति का कोई भेदभाव नहीं था। जयपुर में महान् तपस्विनी श्रीमती इचरजदेवी लूणावत की १६५ दिन की सुदीर्घ तपस्या के महोत्सव पर भारत सरकार के खाद्य मंत्री श्री जगजीवनराम आये थे। आचार्य श्री को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने इसके लिये कोई प्रमोद व्यक्त नहीं किया और अपने प्रवचन में एक निर्भीक, तेजस्वी, फक्कड़ सन्त की तरह देश की परिस्थिति पर अपने विचार व्यक्त किये। उन्होंने कहा कि राजनीतिज्ञ सिर्फ गांधी की कमाई ही नहीं खावें, बल्कि देश में बढ़ते भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण किया जाये। यह अलग बात है कि अनेक लोगों को उनकी यह बात रास न आई हो।
पीपाड़ चातुर्मास में राजस्थान के राज्यपाल बसन्त दादा पाटिल के आने पर भी आचार्य श्री अपने धर्माराधन | में ही लगे रहे और जब महामहिम राज्यपाल स्वयं ने उनके दर्शन कर आशीर्वाद मांगा तो केवल शराब बन्दी की बात कही। आचार्य श्री के सान्निध्य में सबके लिये समान अवसर और समदर्शिता का भाव था। मैंने कई बार देखा है कि संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी भी धर्मसभा में जैसे आते हैं, वैसे बैठते जाते हैं। उनके लिए कोई स्थान निश्चित नहीं रहता। ___आचार्य श्री धर्म को जन्म से नहीं, सद्कर्म से जोड़ते थे। जो सत्कर्म करता है, जो सद्गुणी है, वही उनकी दृष्टि में ऊँचा माना जाता था, फिर चाहे वह किसी जाति व वर्ण का क्यों न हो। मेरे एक सहयोगी मित्र ने जो प्रशासन में हैं और जन्म से मीणा जाति के हैं, एक बार कहा - कि आपके धर्म गुरु आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. इस युग के महान् आध्यात्मिक सन्त हैं। वे समता की प्रतिमूर्ति हैं। हमारी जाति के एक युवक को उन्होंने जैन दीक्षा प्रदान की