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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ५७० समाज में प्रतिष्ठित व्यक्तियों के भोगपरायण होने का फल है। इसी से आज पुन: संस्कृति के महान मूल्यों की अवधारणाओं में ही मंगल अभीष्ट है। इसके लिये पुन: आचार्य श्री के अनुसार स्थिरता, दृढ़ता, निरन्तरता और सात्त्विक बुद्धि-प्रज्ञा आवश्यक है। आचार्यप्रवर “पुमान् पुमांसं परिपातु विश्वत:” के उद्घोषक थे। हमारी चेतना का उत्कृष्ट रूपान्तरण आंतरिक क्रियाशीलता की स्थिति से ही संभव है। मुझे अब भी स्मरण है, जब उन्होंने || दशवैकालिक सूत्र में चार आवेगों की प्रतिपक्ष भावनाओं का निदर्शन किया था - क्रोध का उपशम से, मान का मृदुता से, माया का ऋजुता से और लोभ का संतोष से प्रतिपक्ष पुष्ट करने का उपदेश दिया था। मैं उनका यह सूत्र कभी नहीं भूल सकता “नैक सुप्तेषु जागृयात्" सुषुप्त व्यक्ति को जगाने के लिये स्वयं का जाग्रत रहना आवश्यक है।
समय अपनी चाल चल रहा है। वर्तमान का हर क्षण अतीत में लुप्त होता है और भविष्य का सतत प्रवाह हर |क्षण वर्तमान में रूपायित । काल की इस अखंडता में प्रत्येक क्षण का उपयोग हमें शिव संका जीवन का कल्मष नष्ट करने में करना है। इसका सर्वार्थ साधन संतों की शीतल छाया है। आचार्य श्री इसी शीतल छाया के वट वृक्ष थे, जिसका विस्तार और जिसकी व्याप्ति चतुर्दिक में विद्यमान थी। यही कारण है कि जैन और जैनेतर समाज उनके सान्निध्य में सत्त्वस्थ होकर नीति का श्रेय प्राप्त करते थे। उनकी मरण-समाधि पर सहस्र श्रद्धालुओं ने, श्रावकों ने अश्रुपूरित नेत्रों से उन्हें देवलोक की पावन यात्रा के लिये विदा दी। जन समुदाय की अगणित संख्या इसका परिणाम व प्रमाण थी कि उनकी मंगल वाणी और सदुपदेश ने न जाने कितने विपथगामी व्यक्तियों को सद्वृत्त की ओर प्रेरित किया। ऐसे महान प्रतापी गुरु को मैं श्री गजसिंहजी राठौड के 'गुरु-गजेन्द्र-गणिगुणाष्टकम्' की इस वंदना से ही अपनी अशेष प्रणति देता हूँ।
स्वाध्याय-संघ सह धर्मि-समाज-संवा सिद्धान्त-शिक्षणविधी विविधापदेशः । अध्यात्मबोधनपरास्तव शंखनादा : गञ्जन्ति देव! निखिले महीमण्डलस्मिन् । प्रातर्जपामि मनसा तव नाम मन्त्रं मध्येऽहनि ते स्परणमस्तु सटा गजेन्द्र। सायं च ते स्मरणमस्तु शिवाय नित्यं नाभव ते वसतु शं हृदयेऽस्पदीये ।।
-२ ए. देशप्रिय पार्क (ईस्ट), कोलकाता ७०००२९