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________________ तेणं कालेणं तेणं समएणं (रत्नवंशीय आचार्य-परम्परा) LAREn युगप्रभावक प्रात: स्मरणीय आचार्यप्रवर पूज्य श्री १००८ श्री हस्तीमलजी म.सा. न केवल अपने गुरु भगवंतों की यशस्वी रत्नसंघ परम्परा के, वरन् समूचे जैन जगत के दिव्य दिवाकर महापुरुष थे, जिन्होंने जिनशासन की। कीर्ति-पताका समूचे भारत के कोने-कोने में फहराई व सामायिक-स्वाध्याय का दिव्य घोष कर जिनवाणी की पावन-गंगा से लाखों भक्तों को लाभान्वित किया। श्रमण भगवान महावीर स्वामी के आप ८१ वें पट्टधर आचार्य हुए। प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम स्वामी एवं ।। प्रथम पट्टधर पंचम गणधर आर्य सुधर्मा स्वामी ने केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त कर केवली-परम्परा को आगे बढ़ाया।। | द्वितीय पट्टधर आर्य जम्बू इस युग के अन्तिम केवली हुए। आर्य जम्बू के पश्चात् चतुर्दश पूर्वधर काल में क्रमश: आर्य प्रभव, आर्य शय्यम्भव, आर्य यशोभद्र स्वामी, आर्य संभूत विजय एवं आर्यभद्रबाहु ने जिनशासन का दायित्व अपने ज्ञान-गरिमायुक्त साधना-बल पर संभाला।। आर्य भद्रबाहु के पश्चात् इस युग में कोई भी साधक चतुर्दश पूर्वधर नहीं हुए। आर्य भद्रबाहु के पश्चात् क्रमशः | आचार्य स्थूलिभद्र, आर्य महागिरि, आर्य सुहस्ती, वाचनाचार्य बलिस्सह, वाचनाचार्य स्वाति, वाचनाचार्य श्यामाचार्य, षांडिल्य , समुद्र, मंगू, नन्दिल, नागहस्ती, रेवतीनक्षत्र, ब्रह्मद्वीपकसिंह स्कन्दिल, हिमवन्त क्षमाश्रमण, नागार्जुन, भूतदिन्न, लोहित्य, दूष्यगणी एवं आर्य देवर्द्धि क्षमाश्रमण आदि पूर्वधर आचार्य हुए, जिनकी ज्ञान गरिमा से समूचा जैन संघ आलोकित रहा। आर्य देवर्द्धि क्षमाश्रमण के अवसान के साथ ही पूर्वो के ज्ञान का समूल विच्छेद हो गया। उनके पश्चात् समय-समय पर विभिन्न महापुरुषों ने जिनशासन का संचालन किया। ___आज से लगभग ५५०वर्ष पूर्व धर्मप्राण लोंकाशाह ने अभिनव धर्मक्रान्ति की व शुद्ध साध्वाचार एवं आगम वर्णित विशुद्ध सिद्धान्तों का दिग्दर्शन कराया। धर्मप्राण लोंकाशाह द्वारा की गयी धर्म-क्रान्ति से प्रेरित होकर जिन महापुरुषों ने विशुद्ध श्रमण-परम्परा का पुनरुद्धार किया, उनमें पूज्य श्री धर्मदास जी म.सा, पूज्य श्री धर्मसिंह जी म.सा. एवं पूज्य श्री लवजी ऋषि जी म.सा. प्रमुख थे। पूज्य श्री धर्मदास जी म.सा. के ९९ शिष्य हुए, जिन्होंने २२ टोलों में विचरण-विहार कर भारत के कोने-कोने में धर्मप्रचार कर जिनवाणी की पावन सरिता प्रवाहित की। पूज्य धर्मदास जी म. सा. के तपोधनी सुशिष्य पूज्य श्री धन्नाजी म.सा. ने मरु भूमि में उग्र विचरण-विहार कर विशुद्ध श्रमण-परम्परा का प्रसार किया। पूज्य श्री धन्ना जी म.सा. के शिष्य पूज्य श्री भूधर जी म.सा. सांसारिक अवस्था में पुलिस अधिकारी रहें, सोजत कोतवाल के रूप में डाकुओं का पीछा करते हुए डाकुओं की तलवार के प्रहार से आपकी ऊंटनी की मृत्यु के समय हुई छटपटाहट से आपका मन द्रवित हुआ और मरणधर्मा संसार का साक्षात् बीभत्स स्वरूप प्रत्यक्ष देख कर आपमें वैराग्य भाव जागृत हुए एवं आप पूज्य श्री धन्नाजी म.सा. की सेवा में दीक्षित हुए। आप घोर तपस्वी संतरत्न हुए, घंटों आतापना लेते रहते । तपस्या के साथ तपस्वियों के लिये दुर्लभ क्षमा गुण आपकी अनूठी विशेषता थी।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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