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तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
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| मैंने गुरुदेव से निवेदन किया अन्नदाता, कुछ पुडिया मेरी में से भी लिरावे । बार बार निवेदन करने पर एक दिन प्रमोद मुनि सा ने ५-६ पुडिया ली । कालान्तर में स्वास्थ्य लाभ के पश्चात् आचार्यश्री विहार कर रहे थे और दवाई की कुछ पुडियाँ बच गई थीं। मैंने निवेदन किया- अन्नदाता, यह दवाई की पुड़िया मुझे दे दिरावें । आचार्य देव ने | संतों से कहा कि इन पुडियों को वैद्य संपतराजजी को लौटा कर आवें। मुझे नहीं दी । यह थी उन महापुरुष की सजगता, अप्रमत्तता व निस्पृहता ।
एक - एक प्रसंग अनेक तरह की प्रेरणाएँ प्रदान करने वाला है, तो दूसरी ओर विशुद्ध संयम और साधु समाचारी के प्रति निष्ठा को प्रकट करता है । इसमें कैसे भी भक्त के साथ कोई रियायत नहीं ।
पुरुषार्थ के धनी महापुरुष पूज्य गुरुदेव ने जब हम किशोर अवस्था में थे, तो अपने अंग चिह्नों से बताया कि यह चिह्न पहले यहाँ था और अब यहाँ आ गया। गुरुदेव फरमाते - " तकदीर (भाग्य) नहीं तजबीज (पुरुषार्थ ) होनी चाहिये।” छोटी-छोटी वार्ता में गुरुदेव जीवन में सफलता के रहस्य समझा देते थे ।
सन् १९९१ में गुरुदेव ने महावीर भवन सरदारपुरा में विराजते समय प्रसंगवश फरमाया कि मैंने जीवन में | कभी ढबका नहीं खाया । अर्थात् चारित्र पालन में कभी कोताही नहीं बरती। दृढ़ता एवं निष्ठा पूर्वक आचार धर्म का पालन किया।
सिंहपोल में विराजते प्रसंगवश एक दिन साधुओं के मर्यादा विपरीत आचरण के संबंध में घटना के विवरण | के साथ फरमाया कि कोई जैन साधु भी भला ऐसा कर सकता है, इसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता । उत्कट | संयम पालक गुरुदेव की प्रत्येक साधक के लिये यही भावना रहती कि वह मर्यादा में स्थिर रहे । छल छद्म की तो कल्पना उनके जेहन में ही न आ पाती ।
वयसंपन्न लोगों के संयम - धारण
विरोधी-स्वरों के प्रत्युत्तर में गुरुदेव फरमाते कि क्या बूढ़े लोगों को | आत्मा के कल्याण का अधिकार नहीं हैं? यह थी “आत्मवत्सर्वभूतेषु" व 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' की भावना । सन् १९८४ में जोधपुर के रेनबो हाउस में पर्युषण के पश्चात् गुरुदेव का स्वास्थ्य काफी कमजोर हो गया था। एक दिन दीर्घशंका निवारण के पश्चात् गिर गये। गुरुदेव को संत ऊंचाकर लाये और रेनबो हाऊस के चौक में पट्टे पर सुलाया । सब चिन्तित थे, पर गुरुदेव कुछ ही समय में कुछ स्वस्थता अनुभव करते हुए पाट पर विराज गये और माला फेरने लगे। डाक्टर और सभी उपस्थितजन आश्चर्य चकित थे । डाक्टरों की पूर्ण विश्राम की सलाह पर गुरुदेव भक्तों का मन बोझिल न हो, इस दृष्टि से उनसे ओझल नहीं रहना चाहते थे और न अपनी साधना कमी आने देना चाहते थे । हमेशा फरमाते - मैं अस्वस्थ कहाँ हूँ और फरमाते - 'स्वस्मिन् स्थितः स्वस्थः ।'
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-१, नेहरू पार्क, जोधपुर (राज.)