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(तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
५२९ धार्मिक कार्यों में समय लगाना अच्छा लगता था। स्वाध्याय, सामायिक, प्रतिक्रमण, मौन, ध्यान, एकाशन, आयम्बिल, संवर, दया, समाज-सेवा में अधिक से अधिक समय लगाता रहा। यही मुझे अभीष्ट था। क्रमशः सांसारिक कार्यों में दिनचर्या का समय कम होता गया और आध्यात्मिक धार्मिक प्रवृत्तियों में अधिक। सेवानिवृत्ति के बाद तो आजीविकोपार्जन के कार्य से प्रायः पूर्ण निवृत्ति लेने के बाद अब अधिकांश समय आत्म-साधना में ज्ञान, दर्शन, चारित्र की साधना में ही लग रहा है। यह सब उस महान आचार्य देव की कृपा का ही सुफल है। . स्वाध्यायी को महत्त्व
मरुधरा का एक प्रसिद्ध औद्योगिक नगर है पाली। आचार्य श्री यहाँ विराज रहे थे। मैं भी एक स्वाध्यायी | शिविर के प्रसंग में वहाँ उपस्थित था।
प्रातःकालीन प्रवचन आरम्भ हुआ ही था। मैं सामायिक व्रत ग्रहण कर आगे की पंक्तियों में बैठा था। अनिमेष दृष्टि से आचार्यप्रवर के दर्शन करता हुआ उनकी प्रवचनधारा का पान कर रहा था। आचार्यप्रवर का उद्बोधन-प्रवचन सुनकर गद्गद् हो रहा था।
इसी बीच आचार्यप्रवर के महान् भक्त एक श्रेष्ठी श्रावक का आगमन हुआ। वे अन्य लोगों, मुझे और अन्य स्वाध्यायियों को पीछे छोड़कर आगे आ रहे थे। आचार्यप्रवर को यह उचित नहीं लगा। अन्य स्वाध्यायियों और मेरी तरफ संकेत करते हुए उन्होंने कहा-“अब इन लोगों को आगे आने दो।” इस संकेत में आचार्यप्रवर की स्वाध्याय प्रवृत्ति और स्वाध्यायी वर्ग को समाज में अग्र स्थान देने की भावना निहित थी। वे स्वस्थ, सदाचारी एवं विवेकवान समाज के निर्माण में स्वाध्यायी वर्ग की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर बल देना चाहते थे। आचार्यप्रवर का मनोभाव और आशय समझ कर वे श्रीमन्त सज्जन मुड़ गए और पीछे जाकर उन्होंने अपना स्थान ग्रहण किया। • असाम्प्रदायिकता
एक समुदाय विशेष के आचार्य होते हुए भी पूज्यवर आचार्यश्री हस्ती के सुदीर्घ सान्निध्य से | असाम्प्रदायिकता के दृष्टिकोण का विकास हुआ। यह एक विस्मयकारक तथ्य हो सकता है, परन्तु है यह बिल्कुल सत्य। इस महान् आचार्य के प्रति सम्पूर्ण जैन समाज की श्रद्धा का एक बड़ा कारण उनका असाम्प्रदायिक दृष्टिकोण था।
मेरे बाल्यकाल से ६०-६५ वर्ष तक की आयु तक मुझे खूब याद है कि आचार्य श्री ने अपने जीवनकाल में कभी ऐसी बात नहीं की जिससे सम्प्रदायवाद को हवा मिले। उनके मुँह से कभी किसी की निन्दा विकथा नहीं सुनी गयी। उनके उपदेशों में शुद्ध वैराग्य एवं सैद्धान्तिक विवेचन भरा रहता था। ११ वर्ष की उम्र से ही छात्रावास में रहते हुये आचार्य श्री के दर्शन, प्रवचन एवं प्रतिक्रमण में हमे सम्मिलित होने का सुअवसर मिलता था। सायंकालीन प्रतिक्रमण (देवसिय प्रतिक्रमण) के पश्चात् हमें आचार्य श्री की सेवा में बैठाया जाता। वहाँ प्रश्नोत्तर, धर्म-चर्चा होती। कभी सम्प्रदायवाद का जिक्र नहीं आया। प्रश्नोत्तर एवं धर्म-चर्चा के माध्यम से पर्याप्त ज्ञान वृद्धि हुई, जो मेरी स्थायी निधि बनी हुई है।
जैन रत्न विद्यालय भोपालगढ के प्रधानाध्यापक का पदभार, जिनवाणी पत्रिका का ६ वर्ष तक सम्पादन, स्वाध्यायी कार्यक्रमों में भाग, साधना-विभाग का संचालन जैसे कुछ विशेष दायित्व मुझे सौपें गये थे। इन्हें संभालते हुये आचार्य श्री से अनेक बार सम्पर्क हुआ, चर्चा भी हुई। परन्तु आचार्यप्रवर के मुख से कभी साम्प्रदायिकता की