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________________ उनके साधनामय जीवन ने प्रभावित किया • प्रो.चाँदमल कर्णावट पूज्य आचार्यश्री हस्ती उच्च कोटि के साधक थे। उनके अप्रमत्त साधनामय जीवन से कौन आकृष्ट नहीं होता। वे प्रायः अहर्निश ध्यान-मौन, जप-तप, स्वाध्याय आदि की साधना में लीन रहते । जब भी उनके दर्शन करते तो उन्हें किसी न किसी साधना में लीन पाते। उनके लिए यह कथन अक्षरशः चरितार्थ होता थाः खण निकमो रहणो नहीं. करणो आतम काम। भणणो, गुणणो, सीखणो, रमणो ज्ञान आराम॥ आचार्यप्रवर कभी मौन तो कभी ध्यान में लीन होते, तो कभी जप, तो कभी स्वाध्याय, मनन, चिन्तन और | लेखन में । लेखन और स्वाध्याय में भी इतनी लीनता होती थी कि जैसे वे उन्हीं में खो गए हों। साधना में उनकी अप्रमत्तता, नियमितता एवं दृढ़ता अनुकरणीय होती थी। अप्रमत्तता को निरलसता के सामान्य अर्थ में लेने पर उनकी साधना तत्परतापूर्ण थी। चाहे विचरण-विहार हो, आहार-निहार या प्रवचन हो, हर | प्रवृत्ति का एक निश्चित समय होता, और वह उसी समय पर सम्पन्न हो जाती थी। अहिंसादि पंच महाव्रतों में, समिति-गुप्ति की परिपालना में उनकी दृढ़ता, निरतिचार पालन की सजगता किस दर्शनार्थी को प्रभावित नहीं कर | पाती ! उस महान साधक की साधना को देखकर हृदय हिलोरें लेने लगता और साधना के पथ पर दृढ़ता, सजगता और अप्रमत्तता की प्रबल प्रेरणाओं से भर जाता । मद्य, विषय, निद्रा, कषाय और विकथा के पाँचों प्रमादों से वे दूर दृष्टिगत होते थे। विषय और कषाय के बाधक तत्त्वों को जैसे उन्होंने जीत रखा था। क्रोध-मान उनसे कोसों दूर थे। माया को उनके सरल कोमल हृदय में कहाँ स्थान मिलता? निर्लोभता, निस्पृहता के वे एक आदर्श थे। प्रवचन-सभाओं में उनके गुणगान करने वालों को पूरा बोलने से पूर्व ही बैठ जाना पड़ता। संघ व श्रावकों द्वारा अनेक संस्थाओं की स्थापना हुई, परन्तु कहीं भी उन्होंने अपना नाम जोड़ने ही नहीं दिया। निद्रा के लिए सुना गया कि वे साध्वाचार के अनुसार एक प्रहर भी नहीं सोते थे। जब भी संत उठते तो उन्हें बैठे हुए ही पाते। ध्यान-जप, मौन में लीन । विकथा कभी किसी तरह की, उनके मुँह से सुनी ही नहीं गई। राजकथा, देशकथा भी आध्यात्मिक, | धार्मिक प्रसंग से ही, वह भी यदा-कदा। पिछले एक दो वर्षों में अस्वस्थता के कारण उनकी लेखनी बन्द हुई तो जप ने उसका स्थान ले लिया था। प्रायः अहर्निश ही उनका जाप चलता ही रहता । जप के कारण उनकी अनामिका मुड़ी हालत में ही रह गई थी। वास्तविकता यह है कि उनका सम्पूर्ण संयमी जीवन साधना की ही अथक कहानी था। उसमें उनकी लीनता, एकाग्रता, तादात्म्य आदि प्रत्येक दर्शनार्थी को अत्यंत आकृष्ट करते थे। उनकी यह साधना एक, दो, पांच, दस वर्ष पर्यंत नहीं, अपितु उनकी पूर्ण संयम-पर्याय में चलती रही। ११ वर्ष की बालवय से ६०-६५ वर्ष की अवस्था तक लेखक को उनकी यह साधना ही आकृष्ट करती रही। उनके मुखमण्डल पर सदा सर्वदा प्रसन्नता की लहर दौड़ती रहती थी। उनकी यह प्रसन्नता मूक प्रेरणा दे जाती थी कि समता का साधक कैसा होना चाहिए। कैसी भी प्रतिकूल परिस्थितियां हों, उन्हें कभी गमगीन नहीं पाया गया। भले ही कोई उनका उपदेश नहीं सुन पाया हो, उनसे चर्चा का किसी को अवसर सुलभ नहीं हुआ हो,
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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