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________________ असीम श्रद्धा के केन्द्र मेरे गुरु भगवन्त . श्री मोफतराज पी मुणोत मेरी असीम श्रद्धा के केन्द्र पूज्य गुरुदेव आचार्य भगवन्त श्री हस्तीमलजी म.सा. का जब भी स्मरण करता हूँ, मन प्रमोद एवं उत्साह से भर जाता है। पूज्य गुरुदेव के रोम-रोम में सन्तपना था। उन्होंने उच्च से उच्चकोटि के सन्त का जीवन जीया। वे अप्रमत्तता, निर्लिप्तता और असाम्प्रदायिकता की प्रतिमूर्ति थे। गुरुदेव के जीवन में कथनी एवं करनी में मैंने एक प्रतिशत भी अन्तर नहीं पाया। वे ज्ञान एवं क्रिया के बेजोड़ संगम थे। उनकी साधना का मेरी दृष्टि में कोई सानी नहीं। मेरे पिता श्री पुखराजजी मुणोत गुरुदेव के पक्के श्रावक थे । मैं भी बचपन में गुरुदेव के दर्शन करने जाया करता था, किन्तु अधिक निकटता सन् १९८२ के जलगाँव चातुर्मास से आयी। मैं गुरुदेव के ज्यों ज्यों निकट आया, त्यों त्यों श्रद्धा की अगाधता बढ़ती ही गयी। वे सद्गुणों के पुंज थे। मुझे लगा, मैं अपने जीवन को गुरुदेव के सम्पर्क से उन्नत बना सकता हूँ। मैं याद करता हूँ, तो अपने जीवन में सकारात्मक परिवर्तन का अनुभव कर हर्षित होता हूँ। सन् १९८६ ई. के पीपाड़ चातुर्मास में मुझे गुरुदेव के सान्निध्य में रहने का अवसर अधिक मिला। चातुर्मास में मेरी धर्मपत्नी शरद चन्द्रिका ने अठाई तप किया। मैं इस खुशी में भोज का आयोजन करना चाहता था। भगवन्त को इस बात का पता लगा तो फरमाया - "आप लोगों ने शादी-ब्याह महंगे कर दिए, जीवन-मरण महंगा कर दिया, तपस्या को तो महँगा मत करो।” गुरुदेव के संकेत को मैं समझ गया और अठाई तप के उपलक्ष्य में भोज का विचार छोड़ दिया। उन्होंने इस उपलक्ष्य में मुझे कुछ त्याग करने की बात कही। मैंने सिगरेट छोड़ दी। उसके बाद सिगरेट पीने की कभी इच्छा ही नहीं हुई। __पाली में अखिल भारतीय श्री जैन रत्न हितैषी श्रावक संघ के अध्यक्षीय दायित्व की चर्चा चली। तत्कालीन संघाध्यक्ष डॉ. सम्पतसिंहजी भाण्डावत, संघ-संरक्षक श्री नथमलजी हीरावत, संघ-कार्याध्यक्ष श्री रतनलालजी बाफना आदि सुश्रावकों ने मुझसे दायित्व स्वीकार करने को कहा। मैंने उनसे कहा मुझे यह प्रपंच लगता है। मैं बम्बई में रहता हूँ और संघ का कार्य-क्षेत्र राजस्थान में अधिक है। मैंने अपनी स्थिति संघ-सदस्यों के समक्ष स्पष्ट करते हुये कहा कि मैं न तो नियमित सामायिक ही करता हूँ और न मुझे धार्मिक क्षेत्र की कोई विशेष जानकारी है। बम्बई जाकर तो मैं दुनिया भूल जाता हूँ। अत: मेरी बजाय संघ की रीति-नीति जानने - समझने वाले व्यक्ति का चयन करना चाहिए। संघ के सुज्ञ श्रावकों को मेरे उत्तर से सन्तोष हआ या नहीं, वे मुझे आचार्य भगवन्त के पास ले गये। वहाँ भी चर्चा चल निकली। श्रावकों की विचार - चर्चा को सुनकर गुरुदेव ने मात्र इतना ही फरमाया -“संघ-सेवा भी कर्म-निर्जरा का बड़ा साधन है" अल्पभाषी गुरुदेव की बात मेरी समझ में तब नहीं आयी, किन्तु अब मुझे इस वचन पर पूरा विश्वास है। नि:स्वार्थ संघ-सेवा अपने आत्म-विकास में निश्चित ही सहायक है। संघ के अध्यक्ष पद पर रहते हुए मेरे जीवन में कई परिवर्तन हुए। किसी भी कारण से संघ का पद लज्जित न हो, इसलिए चलने, बैठने, बात करने या अन्य प्रवृत्तियों में परिवर्तन का अनुभव हुआ। क्रोध और अहंकार के भावों पर भी नियन्त्रण हुआ। मुझे यह ध्यान रहने लगा कि कोई कार्य ऐसा नहीं करना, जिससे संघ की गरिमा कम हो । संघ के अधिकारी के रूप
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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