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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ५०२ वाले महापुरुष कालजयी महापुरुष बन जाते हैं। वे 'क्षण' मात्र को भी व्यर्थ नहीं जाने देते। ऐसा अप्रमत्त साधक ही सच्चा पंडित होता है। आगमकारों ने फरमाया है - ‘खणं जाणाहि पंडिए' हे पंडितों ! क्षण को जानो। आत्मा को जानने वाला ही पंडित होता है। पूज्यपाद के जीवन को देखने का जिन्हें सौभाग्य मिला है, वे प्रत्यक्ष साक्षी हैं कि उनका जीवन कितना अप्रमत्त था। रुग्णावस्था के अतिरिक्त उन्हें कभी किसी ने लेटे नहीं देखा, प्रतिपल सजग वह महापुरुष तो सदा 'ज्ञान आराम' में ही लीन रहता। उन्होंने कभी दीवार का टेका नहीं लिया, उन्हें तो 'आगम' का ही सहारा अभीष्ट था।
जीवन की क्षणभंगुरता का जिन्हें अहसास हो जाता है वे महापुरुष समझ लेते हैं - “ असंखयं जीवियं मा पमायए” यह जीवन असंस्कृत है, न जाने आयुष्य की डोरी कब टूट जाये, टूटी डोर को कोई कदापि जोड़ नहीं सकता। इसलिये साधक तो पग पग पर सावधान होकर चलता है कि संयम जीवन में कोई दोष न लगे
चर पयाइं परिसंकमाण, जं किंचि पास इह मण्णमाणो ।
लाभंतरे जीविय बूहइत्ता, पच्छा परिन्नाय मलावधंसी। (उत्तरा. ४.७) पूज्यपाद गुरुदेव ने जीवन के उषाकाल से सन्ध्याकाल तक जिस निरतिचार संयम का पालन किया वह बेमिसाल है। वे सदा दोषों से बचते रहे। संयम में दृढ गुरुवर्य को आपवादिक परिस्थितियों में भी दोष इष्ट नहीं था। उनका निरतिचार संयम जीवन दूसरों के लिये प्रेरणाप्रदायी है। यत्किंचित्-जाने-अनजाने भी कोई दोष न लग जाय, यदि लग गया है तो उसकी भी आलोचना-शुद्धि की ओर कितनी सजगता ! जागृत अवस्था में सभी शिष्यों से क्षमा याचना कर यह भावना प्रकट करना कि मैं आज तक के लगे दोषों की आलोचना करता हूँ, पुन: महाव्रतों में आरोहण करता हूँ, उनकी सजगता, सरलता, उच्च साधना का जीवन्त प्रमाण है।
उन महापुरुष के लिये वस्तुत: कहा जा सकता है कि उन्होंने अपनी विमल संयम-साधना से संसार सीमित | कर लिया। वे निकट भवी थे, क्योंकि स्वयं जिनप्रवचन इसका प्रमाण है
जिणवयणे अणुरत्ता, जिणवयणं करेंति जे भावण।
अमला असंकिलिट्ठा, ते होनि परित्तसंसारी ।। (उत्तरा. ३६, २६०) अर्थात् जो जिनवचनों में अनुरक्त होते हैं, जो भावपूर्वक जिनवचनानुसार आचरण करते हैं, उनकी आत्मा | कर्ममल से रहित, संक्लेश रहित एवं परीत संसारी हो जाती है।
कुछ महापुरुष नजदीक से प्रभावित करते हैं, वे दूर से प्रभावित नहीं कर पाते। कुछ महापुरुष दूर से प्रभावित | कर पाते हैं पर उनका सान्निध्य प्रभावित नहीं कर पाता। गुरुदेव ऐसे विरल महापुरुष थे जिनका चुम्बकीय व्यक्तित्व एवं साधनामय सान्निध्य, दोनों प्रभावित करते थे। उनकी प्रभावक वाणी, हृदय की निर्मलता एवं निस्पृहता भरा जीवन ऐसा था कि जो भी उनके सम्पर्क में आता, वह सदा उनका बन कर रह जाता। उनकी अतिशय पुण्यशालिता इतनी थी कि उनकी यश:कीर्ति देश-देशान्तर में व्याप्त थी। सम्प्रदाय भेद से परे उनकी कीर्ति पताका समूचे जैन जगत में परचम फहरा रही थी। वे महापुरुष आकृति से भी रम्य थे। उनकी ब्रह्मतेज से दीप्त विहंसती हुई आंखों में मानो स्नेह व कल्याण कामना का अमृत रस लहराता रहता, उनके आनन की मुस्कान भक्त घंटों निहारते रहते, पर तृप्त नहीं हो पाते। बाल्यकाल में ही दीक्षित उस साधक की प्रकृति भी कितनी सरल सहज कि उन्हें किसी में दोष की कल्पना करना भी इष्ट नहीं लगता, देखने या सुनने में रुचि तो बहुत दूर की बात थी। प्रभावक व्यक्तित्व का कृतित्व युगों-युगों तक साधकों को प्रभावित करता रहेगा। 'सामायिक संघ' और 'स्वाध्याय संघ' उनके महान्