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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ४९२ ___ ज्ञान एवं क्रिया के क्षेत्र में उनमें इतनी बड़ी विशेषता थी कि जिसके कारण एक परम्परा के आचार्य होते हए भी उनकी ख्याति पूरे जैन समाज में जबरदस्त थी। यह भी एक कारण है कि उन्होंने नये-नये क्षेत्रों में सफल चातुर्मास किये। समय-समय पर अपने साधक-बन्धुओं के साथ समाज में आती हुई विकृतियों को दूर करने का प्रयास किया। श्रावक संघ के प्रति भी उनके मन में दुःख-दर्द था। इसी बात को लेकर वर्षों तक मंथन के बाद उन्होंने मक्खन या सार निकालकर समझाया कि संसार में प्राणी दुःखी क्यों है, पीड़ित क्यों है, उसे खेद क्यों है? उसे दुःख दर्द को दूर करने के लिये सामायिक और स्वाध्याय का संदेश दिया। उन्होंने कहा कि मनुष्य मोह और अज्ञान के कारण दुःखी है। मोह और ममता को मिटाने के लिये तथा समता को प्राप्त करने के लिये सामायिक आवश्यक है। अज्ञान को दूर करने एवं ज्ञान के प्रकाश को जगाने के लिये उन्होंने स्वाध्याय करना बहुत जरूरी बताया। आचार्यप्रवर का यही उपदेश था कि साधक स्वाध्याय द्वारा आगमों का अध्ययन, चिंतन-मनन कर स्व के ज्ञान द्वारा अपने आपको समझे। उसके लिए आपने विश्व को सामायिक और स्वाध्याय का फरमान दिया। आज सभी कहते हैं - गुरु हस्ती के दो संदेश, सामायिक-स्वाध्याय विशेष। पूज्यश्री का कितना बड़ा उपकार है समाज और व्यक्ति पर। सामायिक और स्वाध्याय के प्रचार-प्रसार में जीवन समर्पित कर आपश्री ने ज्ञान और क्रिया दोनों ही क्षेत्रों में श्रावक-श्राविकाओं को अग्रसर किया। स्वाध्याय से ज्ञान और सामायिक से समताभाव की प्राप्ति होती है। ये दोनों ज्यों-ज्यों जीवन में अधिकाधिक स्थान पायेंगे, त्यों-त्यों वीतरागभाव में वृद्धि होगी। सामायिक और स्वाध्याय के प्रचार-प्रसार में पूज्य आचार्यश्री इस तरह समर्पित रहे कि अपने अंतिम वर्षों में वे सामायिक और स्वाध्याय के पर्यायवाची बन गए। । आचार्य भगवन्त तो कहते थे-सामायिक स्वाध्याय का प्रणेता मैं नहीं हूँ, भगवान् महावीर प्रणेता हैं। मैं तो उनके बतलाये हुए संदेश को जन-जन तक पहुंचाने की कोशिश करता हूँ। यह मेरे द्वारा प्रणीत किया हुआ है, ऐसा नहीं है। भगवन्त फरमा कर गये हैं, शास्त्र को जन-जन तक पहुँचाना है। कहने का आशय यह है कि स्वाध्याय एक ऐसा मार्ग है जिस पर चलकर सन्मार्ग को प्राप्त किया जा सकता है। पूज्य प्रवर्तक श्री पन्नालाल जी म.सा. ने संत-सतियों के चातुर्मास से वंचित क्षेत्रों के लिए स्वाध्याय का बीजारोपण किया, पूज्य आचार्य गुरुदेव ने अंकुरित स्वाध्याय-पौध की विशेष देखभाल कर उसे विकसित किया। आपने स्वाध्यायी तैयार करने की प्रवृत्ति को प्राथमिकता प्रदान करते हुए विभिन्न क्षेत्रों में स्वाध्याय-संघ स्थापित करने की महती प्रेरणा की। आज आचार्य श्री के उन्हीं सत्प्रयत्नों के परिणाम स्वरूप भारतभर में स्वाध्याय-संघों की विशाल संख्या है और प्रतिवर्ष नए स्वाध्यायी तैयार होते हैं। महापर्व के प्रसंग पर ये स्वाध्यायी-बंधु आठ दिन तक बाहर रहकर प्रार्थना, प्रवचन, प्रत्याख्यान, आलोचना, प्रतिक्रमण आदि की व्यवस्था करते हैं और इस तरह धर्म की प्रभावना कर चातुर्मास से रिक्त क्षेत्रों में धर्म की गंगा बहाते हैं। गुरुदेव फरमाते थे कि धर्म-स्थान पर आकर शांति के साथ सामायिक करें, यह धर्मस्थान की शोभा है। आचार्य भगवान् के गुण समूह को उनकी विशेषताओं के आधार पर दो भागों में विभाजित किया जा सकता | है- (१) चुम्बकीय गुण और (२) पारस पत्थर के सदृश गुण। _ आचार्य भगवन्त के चुम्बकीय गुणों के कारण ही जो भी व्यक्ति एक बार उनके निकट आकर उनके दर्शन पा
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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