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________________ अध्यात्मयोगी युगशास्ता गुरुदेव • आचार्यप्रवर श्री हीराचन्द्र जी म.सा. गगन-मण्डल में उदीयमान सूर्य का परिचय नहीं दिया जाता। उसका प्रकाश और उसकी ऊष्मा ही उसके | परिचायक हैं। फूल का परिचय उसका विकसित रूप और सुगंध है, जिस पर भ्रमर-दल स्वतः दौड़े हुए चले आते हैं। पूज्य गुरुदेव आचार्य भगवन्त का भी क्या परिचय दूँ, वे श्रमण संस्कृति के अमरगायक, जैन संस्कृति के उन्नायक, युग को सामायिक- स्वाध्याय का अमर संदेश देने वाले महान प्रतापी आचार्य, इतिहास के अन्वेषण के साथ | इतिहास बनाने वाले आदर्श महापुरुष एवं यशस्वी सन्त थे । आपके जीवन के कण-कण में प्रसिद्धि नहीं, सिद्धि का भाव समाया रहा। आपकी साधना का प्रवचनप्रभावना एवं वीतराग वाणी के उपदेशों का लक्ष्य प्रभाव नहीं स्वभाव में लाने का रहा। आपके जीवन में विषमता नहीं समता का साम्राज्य रहा। आपकी अमर आत्म-साधना, सादगी, सरलता व सेवा का सम्मिलित संयोग रही । सम्प्रदाय में रहते भी असाम्प्रदायिक रहकर आप सबको धर्म-मार्ग में आगे बढ़ते रहने की सद्प्रेरणा करते रहे । क्रियानिष्ठ होकर भी आपमें अहंकार की नहीं, आत्म-साक्षात्कार की भावना रही। वे महामानव धर्म और दर्शन के ज्ञायक, सभ्यता और संस्कृति के रक्षक, न्याय और नीति के पालक आगम-आज्ञा के आराधक, सत्य और शिव के सजग साधक, धर्म की आन-बान और शान के चतुर चितेरे, देशकाल की परिस्थितियों के प्रबुद्ध विचारक रहे। मन के श्याम पक्ष आराधना से उज्ज्वल बनाने वाले, सामायिक- साधना रूप मन्त्र के दाता एवं अज्ञानान्धकार को हटाने वाले स्वाध्याय दीप के प्रद्योतक रहे। आपके जीवन में स्वार्थ का कोई संकेत नहीं, परोक्ष- प्रत्यक्ष में कोई अन्तर नहीं, प्रदर्शन - आडम्बर नहीं, लोभ-लालच नहीं, मात्र आत्मा को परमात्मा बनाने की टीस, साधक से सिद्ध बनाने की अन्त:कामना, समाज को ऊपर उठाने की एवं सुधार का दिशा बोध देने की ही अन्तर गूंज रही। इस युग पुरुष ने ज्ञान - दर्शन - चारित्र - तपरूप मोक्ष मार्ग के बल पर चतुर्विध संघ को आगे बढ़ने का संदेश दिया और निर्भीकता का सच्चाई का वीतरागता का, सिद्धान्त पर दृढ़ रहने का, मर्यादाओं एवं नियम- पालन का , " नूतन पाठ पढ़ाया। वे स्वयं सिद्धान्त पर अटल रहे। लाउडस्पीकर के निषेध, सामाचारी के पालन और संवत्सरी आदि के सिद्धान्तों पर दृढ़ रहे। जीवन में कभी हिम्मत नहीं हारी। छोटे से संघ में भी मर्यादा तोड़ने वालों को | निकालते कभी हिचकिचाये नहीं । युगशास्ता गुरुदेव के उच्च साधक व्यक्तित्व व कृतित्व के समक्ष बिना किसी भेद के जैन जैनेतर सभी श्रद्धावनत रहे । आपने संघ में समता के मेरुदण्ड को पुष्ट किया व स्वाध्याय के घोष का शंखनाद किया। आपकी | इन प्रेरणाओं को आत्मोत्थान व संघोन्नति का अनिवार्य साधन मानते हुए सभी ने स्वीकारा है और उसका मूर्तरूप अन्य परंपराओं द्वारा भी स्वाध्याय संघों की स्थापना के रूप में प्रत्यक्ष दृष्टिगत हो रहा है। आपके रोम-रोम में प्रेम, एकता, अनुराग संचरित होता रहा तथा अंतस में करुणा का अविरल स्रोत निरंतर प्रवाहमान रहा । भगवंत की वाणी उत्कर्षता रही। आपका बाह्य व्यक्तित्व जितना नयनाभिराम था, में ओज, हृदय में पवित्रता, उदारता एवं साधना उससे भी कई गुणा अधिक भीतर का जीवन मनोभिराम रहा ।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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