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________________ गंधहत्थीणं ४८० पठन ही नहीं करते, जो उचित नहीं। • आप सामायिक में माला फेरिये, स्तवन पढ़िये, आपके मस्तिष्क में उतनी तल्लीनता नहीं आ पायेगी, जितनी कि स्वाध्याय में आती है। माला में बैठने वाला व्यक्ति झुक सकता है, उसको निद्रा का झोंका आ सकता है, माला जपते-जपते आर्तध्यान भी आ सकता है। दुकान के काम-काज में मन चला गया, किसी मुकदमे का विचार आ गया तो आपका मन उसकी ओर जा सकता है और जाप करते-करते उस विचार-प्रवाह में बह कर प्रभु से प्रार्थना करने लग सकते हैं कि हे प्रभो! अब तो आपकी ही शरण है ! इस प्रकार माला जपते समय आपको चिन्ता भी हो सकती है, आपकी मनोवृत्तियाँ अन्यत्र भी जा सकती हैं। परन्तु स्वाध्याय में काययोग, वचनयोग और मनोयोग-इन तीनों प्रकार के योगों का उपयोग रहेगा। वस्तुतः स्वाध्याय करते समय मन-मस्तिष्क, जिह्वा और आँखों का उपयोग भी जोड़ना पड़ता है। . स्वाध्याय करते समय आपकी आँखें पस्तक पर होंगी। यदि थोड़ी सी भी आँख इधर-उधर घूम गई तो पुस्तक | की पंक्ति छूट जायेगी और आपका स्वाध्याय का चलता हुआ क्रम टूट जायेगा। काययोग, वचनयोग और मनोयोग इन तीनों योगों के संयोजन से ही स्वाध्याय हो सकता है। इसीलिये ज्ञानियों ने कहा है कि स्वाध्याय करते समय आसन स्थिर, वाणी नियंत्रित तथा मन एकाग्र होता है। मन को एकाग्र करने के लिये स्थिर आसन से बैठना अनिवार्य हो जाता है। स्वाध्याय में मन, वचन और काय इन तीनों का योग सुसाध्य है। राग-द्वेष की जटिलगांठ जब तक उदय में है और जब तक वह नहीं टूटती तब तक सम्यग्दर्शन नहीं होगा। उस रागद्वेष की गांठ के तोड़ने अथवा खोलने को ही ग्रन्थिभेद कहते हैं। विषय-कषायों के ग्रन्थिभेद के बिना सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हो सकती। वस्तुतः ग्रन्थिभेद का सबसे बड़ा साधन भी स्वाध्याय ही है। स्वाध्याय वह प्रक्रिया है, जो हमारी मनोभूमि के साथ शास्त्रीय वाणी के द्वारा अज्ञान का अन्धकार हटाने एवं ज्ञान की ज्योति जगाने के लिये घर्षण का काम करती है। वह एक साधन है, जिससे हम अपने मन पर आये हुए, आत्मा पर लगे हुए अज्ञान के परदे को दूर कर सकते हैं। देश एवं समाज के सामने दृढ़ता से खड़ा होना है, तो स्वाध्याय के संस्कार घर-घर में प्रारंभ कीजिए। अपने बच्चों में स्वाध्याय के संस्कार डालिये। स्वाध्याय में आप भी प्रवृत्त होइए। स्वाध्याय साधु एवं श्रावक का सामान्य धर्म है। सामायिक, उपवास, यम, नियम आदि विशेष धर्म हैं, पर स्वाध्याय सामान्य धर्म है। जैसे बिना छाना पानी नहीं पीना, जाप करना आदि समाज-धर्म है। अगर साधु-साध्वी विराजते हैं, तो गुरु-दर्शन प्रतिदिन करना समाज धर्म है। इन्हें जैसे आपने समाज-धर्म मान रखा है, उसी तरह स्वाध्याय को भी समाज-धर्म का रूप दें। बच्चे-बूढ़े, युवक-युवतियाँ,बालक-बालिकाएँ, सभी नित्य-नियम के तौर पर इस स्वाध्याय को स्वीकार करें। स्वाध्याय का लक्ष्य आप लोग स्वाध्याय के अन्तरंग और बहिरंग इन दोनों लक्ष्यों को लेकर चलें । अन्तरंग लक्ष्य स्वाध्याय का यह है कि जीवन को दूषित करने वाले मिथ्या तत्त्वों से, आत्मा को कलुषित करने वाले सभी प्रकार के कार्यों एवं विचारों से अपने आपको दूर रखना तथा अन्तर्मन को शुद्ध चिन्तन, शुभ एवं परम कल्याणकारी कार्यों में निरत रखना। इस आन्तरिक लक्ष्य में प्रतिपल सजग रहने की आवश्यकता है। स्वाध्याय का बहिरंग लक्ष्य है समाज-निर्माण, समाज-सेवा और शासन-सेवा का कार्य करना। इस प्रकार स्वाध्याय के दो लक्ष्य हुए अन्तरंग
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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