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________________ द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड है। उधर ज्ञान और क्रिया, इधर सामायिक और स्वाध्याय । • मन में गर्व, क्रोध, कामना, भय आदि को स्थान देकर यदि कोई सामायिक करता है तो ये सब मानसिक दोष इसे मलिन बना देते हैं। पति और पत्नी में या पिता और पुत्र में आपसी रंजिश पैदा हो जाए तब रुष्ट होकर काम न करके सामायिक में बैठ जाना भी दूषण है। अभिमान के वशीभूत होकर या पुत्र, धन, विद्या आदि के लाभ की कामना से प्रेरित होकर सामायिक की जाती है तो वह भी मानसिक दोष है। अप्रशस्त मानसिक विचारों के रहते सामायिक से आनन्द या लाभ के बदले उलटा कर्म बन्ध होता है । • ४६९ सामायिक के समय शारीरिक चेष्टाओं का गोपन करके स्थिर एक आसन से साधना की जाती है । चलासन और कुआसन, सामायिक के दोष माने गए हैं। अगर कोई पद्मासन या वज्रासन आदि से लम्बे काल तक न बैठ सके तो किसी भी सुखद एवं समाधिजनक आसन से बैठे, किन्तु स्थिर होकर बैठे। पालथी आसन या उत्कटुक आसन से भी बैठा जा सकता है, किन्तु बिना कारण बार-बार आसन न बदलते हुए स्थिर बैठना चाहिए। • आप सामायिक में सीधे-सादे रूप में, सीधे-साधे वस्त्रों में बैठे हैं। इससे आपके पास बैठे दूसरे सामायिक कर रहे भाई का अपमान नहीं होगा। पर सामायिक में भी अगर आप अपने अंग-प्रत्यंग पर आभूषण लाद कर चमकीले-भड़कीले वस्त्रालंकार पहन कर बैठेंगे तो इससे दूसरों का एक प्रकार से अपमान होगा। • सामायिक करने वाले सैकड़ों हजारों भाई-बहिनों को जिस ध्यान से श्रवण करना चाहिए, जिस विधि से व्रत करना चाहिए, वे उस विधि से नहीं कर रहे हैं, इसीलिए जो आनन्द आना चाहिए वह नहीं आ रहा है। सामायिक करने वालों के सामने कोई करोड़पति सेठ आ जावे, कोई गवर्नर आ जावे या कोई सेल्स टैक्स का इन्सपेक्टर आ जावे तो भी उनका कलेजा हिलना नहीं चाहिए। लेकिन यहाँ तो कोई साधारण बाई या भाई भी पचक्खाण करने के लिए आ जावे, बाहर के चार-पाँच मित्र आ जावें तो उनकी गर्दन घूम जायेगी। गर्दन घूम गई तो आपकी सामायिक स्थिर नहीं होगी। यदि इस प्रकार की वृत्ति चलती रही तो आगे नहीं बढ़ सकेंगे । जिस तरह घर से निकलकर धर्मस्थान में आते हैं और कपड़े बदलकर सामायिक साधना में बैठते हैं उसी तरह से कपड़ों के साथ-साथ आदत भी बदलनी चाहिए और बाहरी वातावरण और इधर-उधर की बातों के खयाल को भुला देना चाहिए। यदि इस तरह से सामायिक करेंगे तो बहनों और भाइयों को अवश्य लाभ होगा । • आपने सामायिक का व्रत लिया। सामायिक व्रत में आपकी निवृत्ति किससे हो ? 'सावज्जजोगं पच्चक्खामि भगवन् ! जो भी सावध - पाप सहित काम होगा, उसका मैं त्याग करता हूँ । त्याग कर दिया, लेकिन अंगीकार किया क्या, यह आपको याद नहीं है । आपने सावद्य योग का त्याग किया, उसके साथ निरवद्य योग को ग्रहण करके उसका अनुपालन और आचरण भी आवश्यक है। • माताएँ-बहिनें सामायिक में बैठी- बैठी लम्बा चौड़ा प्लान बना डालती हैं और अधिकांश समय बताशा, नारियल और वेश की बातों में बिता देती हैं। सामायिक में इस तरह की बातें करने से संवर- निर्जरा नहीं होकर राग-द्वेष बढ़ता है I • संसार में मानव चौबीसों घण्टे आरम्भ - परिग्रह एवं विषय- कषाय में तल्लीन रहता है। उसके कर्मबन्धन को हल्का करने के लिए सामायिक साधना बताई गई है। जैन धर्म में 'सामायिक' का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह सभी साधनाओं की भूमि है। पौषधादि सभी व्रत
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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