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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ४६२ • समाज में पचासों भाई-बहन ऐसे हैं जिनके खाने-पीने को भी सुबह शाम व्यवस्था बराबर नहीं होती है। कई भाई ठेला घुमाकर अपना पेट भरते हैं। महाजन की बेटी दूसरों के यहाँ रसोई करके पेट भरती है। जैसे बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ हैं वैसे ही कुछ कमजोर लोग भी हैं। लेकिन बूंद-बूंद से घड़ा भरता है, यह सोचकर उनका सहयोग करना चाहिए। समाज का कोई बच्चा गलत रास्ते पर चला गया है तो उससे घृणा नहीं करके उसे समझाने की कोशिश करें अच्छे मार्ग पर लगाने की कोशिश करें तो वह सुधर जायेगा। किसी समय यह कहा जाता था कि स्थानकवासियों में खर्चा कम होता है। लेकिन आज तो लाखों रूपये खर्च होते हैं। सन्तों की थोड़ी सी आवाज निकलेगी तो एक-एक व्यक्ति उनके इशारे पर अपनी भूमि, कोठी और लक्ष्मी छोड़ सकते हैं। उनके प्रति इतनी श्रद्धा है, असर है। फिर भी हम लोग आगे क्यों नहीं बढ़े? श्रद्धा के साथ ज्ञान और विवेक चाहिये। इनकी कमी के कारण पैसा गलत मार्ग में भी जाने लगता है। लाखों रुपये हर साल खाली स्थानकवासी समाज का खर्च हो जाता है। उस रुपये से कुछ वर्षों में समाज के लोगों के लिये, बच्चों की शिक्षा के लिये, उनकी व्यवस्था के लिये कितना बड़ा काम हो सकता है। • हर जैन भाई-बन्धु जो ज्ञानी हैं, समाज के स्तम्भ कहलाने वाले हैं वे इतना भी संकल्प करें कि हम १२ व्रतधारी | श्रावक नहीं बन सकते, ५ महाव्रतधारी साधु नहीं बन सकते तो जो व्रती बनने वाले हैं, ज्ञानी बनने वाले हैं, धर्म के लिये जीवन अर्पण करने वाले हैं उनकी रक्षा करेंगे। धन से , मन से, तन से और वाणी से रक्षा करेंगे। लेकिन ठोकर किसी को नहीं मारेंगे। तन से भी ठोकर नहीं मारेंगे, मन से भी ठोकर नहीं मारेंगे और धन्धा-बाड़ी से भी ठोकर नहीं मारेंगे, टकरायेंगे नहीं। यदि आप इतना सा भी संकल्प कर लें तो मै कहूंगा कि इससे समाज का बड़ा हित हो सकता है। • हमारा समाज-सेवा का कार्य आगे नहीं बढ़ता। काम करने वाले कुछ सम्मान चाहते हैं और काम कराने वाले चाहते हैं कि सम्मान किस बात का दें? "ए तो घर का टाबर है, इणा रो भी फर्ज है, म्हारे ऊपर एहसान करे कंई। बाहर का आदमी होवे तो सम्मान भी देवां।” समाज के अगुआ उनको सम्मान देवें नहीं और काम करने वालों का नाम आवे नहीं। नतीजा यह होता है कि काम करने वाले, बाहरी समाज का काम करेंगे। आर. एस. एस. का काम करेंगे, कांग्रेस का काम करेंगे, लेकिन समाज का क्षेत्र खाली रह जायेगा। जो भाई-बहन उपवास करते हैं वे अपना समय खेलों में, प्रमाद में, पिक्चर देखने में नहीं लगावें । प्रतिक्रमण करें, आलोचना करें, सत्संग की आराधना करें। समाज-सेवा का मौका आवे तो उसे करें, लेकिन धर्म-क्रिया को नहीं छोड़ें। आप धर्मक्रिया करते हैं और दूसरा ऐसा नहीं करता है तो उसे नास्तिक कहकर उसका तिरस्कार नहीं करें, उसको भी प्रेम से गले लगावें। • समाज में ऐसे कितने लोग हैं जो यह कहें कि मेरी बहनें और भाई जो आर्थिक दृष्टि से कमजोर हैं उन भाई-बहनों की मदद करना, वात्सल्य करना मेरा काम है, क्योंकि मेरे पास दो पैसे का साधन है और इनके पास नहीं है। इनकी मदद नहीं करूँगा तो मेरी हल्की होगी। किसी रोगी की सेवा करनी है, उसका मल साफ करना है, उसका शरीर और मल-मूत्र से खराब कपड़े साफ करने हैं। यह काम तभी किया जा सकेगा जबकि ग्लानि या सूग मिटेगी। जिसको यह खयाल होगा कि यह काम मेरे करने का थोड़े ही है तो वह स्वयं सेवा का आनन्द नहीं ले सकेगा। -
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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