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________________ - - - •+ -- --- - -- -- - me - - -- - - - - - - - - - - - - - - द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ४५९॥ करवाना चाहते हैं। एक बाई आई और कहने लगी-“महाराज' ! मेरा पुत्र मेरा कहना नहीं मानता। आप उसे समझाओ” मैंने उससे पूछा- बेटा किसका है?' तो वह बोली 'मेरा है'। जो अपने बेटे-बेटियों को नहीं सुधार सकते वे समाज को सुधारने की जिम्मेदारी कैसे ले सकते हैं? • मैं समाज के भीतर की कमजोरियों को, बुराइयों को (अखाद्य-भक्षण, अपेय-पान, अगम्य-गमन आदि दुष्प्रवृत्तियों के द्वारा, दुर्वृत्तियों के द्वारा जो विकार समाज में प्रविष्ट हुए हैं उनको) नंगे रूप में बाहर प्रस्तुत करना, समाज की शक्ति में, समाज के मानस में दुर्बलता लाने का कारण समझता हूँ। इसके विपरीत मैं यह सोचता हूँ कि इन || दुर्बलताओं को बाहर प्रकट करने के बजाय उनके उपचार प्रस्तुत कर इलाज किया जाए, जिससे कि समाज में| ऐसे विकार प्रविष्ट ही न हों तथा जो विकार प्रविष्ट हो गये हैं वे बढ़े नहीं और पुराने विकारों को, पुरानी बुराइयों को जो समाज में व्याप्त हैं , उन्हें धीरे-धीरे प्रभावी और कारगर ढंग से निकाला जाए। मेरे चिन्तन ने मुझे एक मार्ग प्रस्तुत किया कि यदि कोई सामूहिक कार्यक्रम समाज के सामने प्रस्तुत हो और || समाज उस कार्यक्रम को अपना ले तो समाज में व्याप्त बुराइयाँ दूर हो सकती हैं, समाज में प्रविष्ट हुए विकार दूर हो सकते हैं। भाषणों से ये बुराइयाँ दूर हो जाएं , ऐसी आशा नहीं है । व्यक्तिगत रूप से कुछ लोगों को पकड़ने से भी ये बुराइयाँ दूर नहीं हो सकती हैं। ये बुराइयाँ तो एक सबल सामूहिक कार्यक्रम को समाज के सम्मुख प्रस्तुत करने से ही दूर हो सकती हैं। इसी प्रेरणा से समाज के सामने एक भावना मैंने व्यक्त की कि जो भाई किसी नैतिक बंधन में बंधे हुए नहीं हैं, उनको सामायिक के सामूहिक कार्यक्रम द्वारा नैतिकता की सीमा में, नियमों में बांधकर सामायिक करने की शिक्षा दी जाए। इसी प्रेरणा से सामायिक संघ की स्थापना हुई। सामायिक संघ के नियम बनाये गये। एक घड़ी के लिए भाई और बहनें सामायिक लेकर बैठ जाएं और जो इन नियमों का पालन करें वे सामायिक संघ के सदस्य बन सकते हैं। इस प्रकार मैंने एक उपाय समाज के सामने ! प्रस्तुत किया। इस तरह किया जाये तो समाज में जो बुराइयाँ घर कर गई हैं, उनका निकन्दन हो सकता है। आपको तोड़-फोड़ की ओर नहीं, निर्माण की ओर बढ़ना है। हमारे समाज का, एक आदर्श समाज के रूप में निर्माण कैसे हो, इस ओर विशेष ध्यान देकर आपको बड़ी निष्ठा, तत्परता और लगन के साथ अनवरत अथक परिश्रम करना है। किसी को बड़ा काम मिल गया तो वह समझता है कि छोटा काम कैसे किया जाए। आस-पास की जमीन पर कचरा पड़ा है, और उसे यदि ओघे से पूंजता है तो लोग समझेंगे छोटा-मोटा महाराज है। यहाँ पर जाजम पर बैठने से पूर्व यदि आपसे कहा जाए कि झाडू लगाने वाला नहीं आया है, इस हॉल को साफ करना है, तो आपमें से कितने भाई इसके लिए तैयार होंगे? कोई लखपति-करोड़पति सेठ आ गया तो आप उसकी इज्जत करते हैं। यह आपने पैसे की इज्जत की। इसी | तरह कोई शास्त्रों का ज्ञाता या विद्वान आवे और आप उसका हाथ थामकर आगे करते हैं तो यह ज्ञान का सम्मान होगा। इसी प्रकार कोई बारह व्रतधारी श्रावक आये और आप उसका आदर करेंगे तो वह व्रत का आदर | होगा। जब तक व्यक्ति अपने स्वयं के जीवन का निर्माण नहीं कर लेता तब तक वह दूसरों के समक्ष खड़ा होकर सुधार की कोई बात कहेगा तो उसका स्वयं का मानसिक बल एवं आत्मबल अशक्त और निर्बल होने के कारण उसकी वाणी में ओज तथा तेज का अभाव होगा। उसके कथन का कोई प्रभावकारी परिणाम नहीं होगा। इस - - - - --- - -
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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