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________________ ४३० नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं है। वास्तव में आहार-विहार के साथ ब्रह्मचर्य का बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। अतएव ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले को इस विषय में सदा जागरूक रहना चाहिए। मांस, मदिरा, अंडा आदि का उपयोग करना ब्रह्मचर्य को नष्ट करने का कारण है। कामोत्तेजक दवा और तेज मसालों के सेवन से भी उत्तेजना पैदा होती है। भक्ति (द्रष्टव्य-प्रार्थना /स्तुति) जिस भक्त को भगवान् के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा उत्पन्न हो जाएगी, उसे दुनियां के अन्य साधनों में, धन - दौलत में, वैभवविलास में सुखानुभूति नहीं होगी। भक्त का मन प्रभु के चरणों के सिवाय अन्यत्र कहीं शान्तिलाभ नहीं कर सकेगा। वह भले ही शब्दों का उच्चारण नहीं करेगा, जप नहीं करेगा, परन्तु उसका अन्त:करण तो इसी भाव में डूबा रहेगा कि तू मेरे अन्त:करण का स्वामी है, अगर मेरे हृदय का सम्राट कोई है तो वह तूं ही है, अन्य नहीं। तेरे सिवाय कोई मेरा स्वामी नहीं, साथी नहीं, सहायक नहीं, सखा नहीं। . भगवान महावीर भगवान महावीर संसार के जीवों को अभयदान देने वाले हैं, ज्ञान की आँखें देने वाले हैं, स्वयं का मार्ग बताने के निमित्त बनने वाले हैं और शरण देने वाले हैं, रक्षक हैं, दुर्गति में गिरते हुए का बचाव करने वाले जीवन के दाता हैं। इसलिए वे नाथ हैं। • महावीर के जीवन की एक विशेषता है । वे स्वयं जिन बने और इस ओर उन्होंने दूसरों का ध्यान आकर्षित किया - “मानव ! आ जाओ तुम भी मेरी तरह राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करके जिन बन जाओ। तुम भी सन्मार्ग | पर चलोगे, पुरुषार्थ करोगे तो कर्म का आवरण टूटेगा और तुम भी जिन बन जाओगे।" महावीर कौन थे? वे मानव तो जरूर थे , लेकिन मानव से वे अपने आपको अति मानव बना चुके थे। साधारण मानव जो कि काम-क्रोध में उलझा रहता है, उन सब विकारों पर अरिहन्त महावीर ने पूर्ण विजय पा ली थी। जन्म काल से वे तीन ज्ञान लेकर आये, दीक्षित हुए तब एक ज्ञान और बढ़ गया। दीक्षित होने के बाद उन्होंने साधना करनी चालू की। महावीर ने साढ़े बारह वर्षों तक तपस्या की। लोक सम्पर्क को समाप्त किया, उससे किनारा किया। किसी से बात नहीं की। सवालों का जवाब भी नहीं दिया। जंगल में, सूने घरों में, देवलों में, नगर या गांव के बाहर छोटे मोटे अवस्थानों में खड़े रह गये और ध्यान किया। आने वालों में से कइयों ने उनका आदर किया, सत्कार किया, भक्ति की, तो कुछ लोग ऐसे भी मिले जिन्होंने उनकी ताड़ना की, तर्जना की, पत्थर फेंके, कानों में कीले ठोंक दी और उनके पाँवों पर खीर पकाने का कार्य किया। इतना होने पर भी महावीर ने अपने मन में शान्ति बनाये रखी, अविचल भाव बनाये रखा।। राजघराने में पैदा होने वाले, भव्य भवनों में देवतुल्य वस्तुओं का उपभोग करने वाले महावीर ने ३० वर्ष की भरपूर जवानी में निकलकर जंगल में दूर-दूर भटकना मंजूर किया। इससे उनके मन में कोई परेशानी नहीं हुई, चिन्ता नहीं हुई। सुबह-शाम शरीर पर चन्दन का लेप लगाने वाले, फूलों की शय्या पर सोने वाले, कभी रात्रि में यक्ष के देवालय में ध्यान में खड़े रहे, तो कभी सूने मकान में ध्यान करके खड़े रहे। आने जाने वाले उनको सता रहे हैं, कभी-कभी कंकर-पत्थर उन पर फेंक रहे हैं, कभी चोर समझकर पकड़ रहे हैं, किसी ने उन पर चाबुक का प्रहार भी किया, डण्डों का प्रहार भी किया, लेकिन महावीर के मन में तिल-तुष मात्र भी व्यथा नहीं हुई, खेद नहीं
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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