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द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
है। अधिक क्या, आज संत- दर्शन और संत-समागम में भी धन-लाभ की कामना की जाती है ।
• साधारण मानव यदि परिग्रह का पूर्ण रूप से त्याग नहीं कर सके, तो भी वह उसका संयमन कर सकता है। परिग्रह के मोह में फंसा हुआ व्यक्ति अफीमची के सदृश है और मोही प्राणियों के लिए धन अफीम के समान है। अफीम के सेवन से जैसे अफीमची में गर्मी, स्फूर्ति बनी रहती है, किन्तु अफीम शरीर की पुष्ट धातुओं को सोखकर उसे खोखला बना देती है, परिग्रह रूपी अफीम भी मनुष्य के आत्मिक विकास को न सिर्फ रोक देती है, बल्कि उसे भीतर से सत्त्वहीन कर देती है। अतः हर हालत में इसकी मर्यादा कर लेने में बुद्धिमानी है ।
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• परिग्रह का विस्तार ही आज संसार में विषमता और अशान्ति का कारण बना हुआ है। यदि मनुष्य आवश्यकता को सीमित कर अर्थ का परिमाण कर ले, तो संघर्ष या अशान्ति भी बहुत सीमा तक कम हो जाए। आज जो अति श्रीमत्ता को रोकने के लिए शासन को जनहित के नाम पर जन-जीवन में हस्तक्षेप करना पड़ रहा है, धार्मिक सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर यदि मानव अपने आप ही परिग्रह की सीमा बांध ले, तो बाह्य हस्तक्षेप की आवश्यकता ही नहीं रहेगी और मन की अशान्ति, हलचल और उद्विग्नता भी मिट जाएगी।
• परिग्रह का दूसरा नाम 'दौलत' है, जिसका अर्थ है - दो-लत अर्थात् दो बुरी आदतें । इन दो लतों में पहली लत है हित की बात न सुनना । दूसरी लत है— गुणी, माननीय, नेक सलाहकार और वन्दनीय व्यक्तियों को न देखना, न
मानना ।
सारी दुनिया भुक्ति या भोग के पीछे छटपटा रही है क्योंकि परिग्रह की साधना में किये गए समस्त कार्य भुक्ति के अन्तर्गत आते हैं। मनुष्य यदि भुक्ति को ही जीवन का लक्ष्य बना ले, तो पशु और मनुष्य में कोई अन्तर नहीं
रहता ।
• सम्राट् सिकन्दर ने प्रबल शौर्य प्रदर्शित कर खूब धन संग्रह किया, किन्तु जब यहाँ से चला तो उसके दोनों हाथ खाली थे। बड़े-बड़े वैद्य और डाक्टर वैभव के बल से उसको बचा नहीं सके और न उसके सगे- सम्बंधी ही उसे चलते समय कुछ दे सके ।
• आत्मा की मलिनता दूर करने का सबसे बड़ा उपाय भोगों से मुक्त होना है और इसके लिए अनुकूल साधना अपेक्षित है। मनुष्य जब तक सांसारिक प्रपञ्च रूप परिग्रह से पिण्ड नहीं छुड़ाता तब तक उसके मन प्रतिबिम्ब की तरह हिलता चंचलता बनी रहती है, भौतिकता के आकर्षण से उसका मन हिलोरें खाते जल रहता है। लालसा के पाश में बंधा मानव संग्रह की उधेड़बुन में सब कुछ भूलकर आत्मिक शान्ति खो बैठता है । अतएव सच्ची शान्ति पाने के लिए उसे अपरिग्रही होना अत्यंत आवश्यक है।
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वह महापरिग्रही है और करोड़ों की सम्पदा • जिसके पास कुछ नहीं, पर इच्छा बढ़ी हुई है, तृष्णा असीम है, पाकर भी जिसका इच्छा पर नियंत्रण है, चाह की दौड़ घटी हुई है, वह अल्पपरिग्रही है ।
• अगर लोभ से सर्वथा पिण्ड छुड़ाना कठिन है तो उसकी दिशा बदली जा सकती है और उसे गुरुसेवा या जप-तप तथा सद्गुणों की ओर मोड़ा जा सकता है। ऐसा करने पर परिग्रह का बंधन भी सहज ढीला हो सकेगा ।
• साधारणतः मानव मोह का पूर्णरूप से त्याग नहीं कर पाता, पूर्ण अपरिग्रही नहीं बन पाता तो क्या वह उस पर संयम भी नहीं कर सकता ? ऊँची डालियों के फूल हम नहीं पा सकते तो क्या नीचे के कांटों से दामन भी नहीं अनावश्यक मांस वृद्धि हो जाती है तो उससे । छुड़ा सकते ? अवश्य छुड़ा सकते हैं। जब शरीर के किसी अंग