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मेरे अन्तर भया प्रकाश
मेरे अन्तर भया प्रकाश, नहीं अब मुझे किसी की आशाटेर||
काल अनन्त रूला भव वन में, बंधा मोह के पाशा काम, क्रोध, मद, लोभ भाव से, बना जगत का दास||१||
तन धन परिजन सब ही पर हैं, पर की आश निराशा पुद्गल को अपना कर मैंने, किया स्वत्व का नाश|२||
रोग शोक नहीं मुझको देते, जरा मात्र भी त्रास। सदा शांतिमय मैं हूँ, मेरा अचल रूप है खास||३||
इस जग की ममता ने मुझको, डाला गर्भावास। अस्थि मांस मय अशुचि देह में, मेरा हुआ निवास||४||
ममता से संताप उठाया, आज हुआ विश्वास। भेद ज्ञान की पैनी धार से, काट दिया वह पाश||५||
मोह मिथ्यात्व की गांठ गले जब, होवे ज्ञान-प्रकाशा 'गजेन्द्र' देखे अलख रूप को, फिर न किसी की आश||६||
आचार्य श्री हस्ती