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________________ (द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ३९९ • आज हमारे वीतराग मार्ग को मानने वाले लाखों की संख्या में भक्त होते हुए भी एक-दूसरे को उपेक्षा भाव से देखते हैं। धर्ममार्ग की कोई साधना नहीं करता है, तो इसकी किसी को चिन्ता नहीं है। हल्की बात कर देंगे, लेकिन उसको प्रेम से रास्ते लगाने की बात नहीं कहेंगे। • अड़ोस-पड़ोस में चोरी करने वाले, हिंसा करने वाले, शराब पीने वाले, धर्म की निंदा करने वाले हैं। तो उनसे घृणा करने के बजाय प्रेम करो और उनको पास में बैठाकर धर्म की प्रेरणा देना सीखो। यह उपदेश तुम्हारे लिए लाभकारी बनेगा। यदि संसार के प्राणी घृणा करने के बजाय धर्ममार्ग पर लगाने का कर्तव्य करना सीख जायें तो खुद के जीवन को भी पाप से हल्का रख सकते हैं और संसार का भी भला कर सकते हैं, लेकिन यह बात तब आयेगी जब भगवान महावीर के संदेश का सही स्वरूप समझेंगे। धर्म में बाधकता आज मानव को पथ-भ्रष्ट करने वाले कई साधन उपलब्ध है। यदि आप एक दिन के लिए भी किसी वस्तु का | त्याग कर दें तो आपके पारिवारिक जीवन में साथ रहने वाले लोग आपको डिगाने का प्रयत्न करेंगे। यदि दो-चार युवक सप्ताह या दस दिन के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करने का विचार करें तो उनको विचलित करने के अधिक निमित्त मिलेंगे। संसार के रिश्ते, नातेदार और मित्रजन आगे बढ़ने के निमित्त नहीं होंगे वरन् चढ़े हुए लोगों को नीचे गिराने के निमित्त होंगे। इसमें उनका विशेष दोष नहीं है। वे स्वयं राग से घिरे हुए हैं इसलिए वे अपने साथी को अलग से ऊँचा चढ़ने नहीं देंगे। यदि वह अलग से ऊँचा चढ़ जाता है तो उसके साथ निकटता मिट जाती है। उनका अपनापन मिट नहीं जाए, यही उनका दृष्टिकोण रहता है। वे यह भी सोचते हैं कि यदि कोई धर्म-साधना में लग गया तो उसके दूसरों से सम्बंध ढीले होते जाएंगे और वह उनसे दूर होता जाएगा। इसके विपरीत यदि आप अधर्म का काम करते हैं और उससे उनके स्वार्थ का पोषण होता है, तो वे आपका साथ देते रहेंगे। क्या किसी के घर में ऐसी धर्मपत्नी है, जो अपने पति से पूछे– “आपने दस हजार रुपये इस महीने में मिलाये हैं, वे कैसे मिलाये या कहाँ से आये? आप कृपा करके बता दें। दस हजार रुपयों का आपको मुनाफा हुआ है तो कहीं आपने अन्याय से, पाप के गलत मार्ग से तो नहीं लिया?” ऐसा पूछने वाली कोई देवी है क्या? एक ही महीने में दस हजार रुपये का मुनाफा भाई साहब ने व्यापार में किया है, यह बात देवी जी ने सुनी और कोई महंगा आभूषण उन्हें दे दिया तो वे प्रसन्न हो गयी और उस कमाई में उनका भी सहयोग हो गया। अधिकांश लोग तो यही समझते हैं कि कमाना, खाना और परिवार के लोगों की आवश्यकता को पूरी करना ही हमारा कर्तव्य है। इन परिस्थितियों में मनुष्य के जीवन को उत्थान की ओर ले जाने के लिए यदि कोई अवलम्बन है तो वह धर्म-गुरु है, जो स्वयं मुक्ति मार्ग का पथिक है और दूसरों को भी उस पथ पर ले जाता है। जब खुद तिरेगा तभी तो वह दूसरों के लिए अवलम्बन होगा। धर्म-रुचि जिस जीव का तन स्वस्थ नहीं है, उसको भोजन की रुचि नहीं होती। ठीक उसी प्रकार जिसका मन स्वस्थ नहीं है, उसको धर्म पर रुचि नहीं रहती। जैसे बुखार टूटते ही भोजन में रुचि होने लगती है, वैसे ही मन से विकार |
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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