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________________ ३९४ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं • दीक्षा के पूर्व शिक्षा होना जरूरी है। प्रथम शिक्षा, फिर परीक्षा, फिर दीक्षा और उसके बाद भिक्षा सफल होती है। अतः अपने सन्त-सतीवर्ग को सुशिक्षित बनाने में सदैव प्रयत्नशील रहें। व्यावहारिक शिक्षा से जीवन अच्छे ढंग से चलाया तो जा सकता है, किन्तु बनाया नहीं जा सकता। साहित्य एवं कला भी जीवन निखार में वरदान माने गए हैं। • दीक्षा, शासन-भक्ति के लिए किये जाने वाले कार्य की इति श्री नहीं है, वह तो वस्तुतः साधक के लिए चरम लक्ष्य की प्राप्ति का साधन है। उसके द्वारा साधक आगे बढ़ने का परीक्षण करता है। - दुःख-मुक्ति • दुःखमुक्ति की कुंजी के होते हुए भी उसको सही तरीके से घुमा नहीं पाते। यही कारण है कि संसार के लाखों, करोड़ों, अरबों मनुष्य दुःखी के दुःखी रह जाते हैं और दुःखमुक्त होना तो दूर रहा, अपने दुःख को और बढ़ा लेते हैं। अपने ही हाथ से अपना दुःख बढ़ाते हैं। • हम सब बाहरी सामग्री का अंबार पाकर भी दुखी हैं तो इसका मतलब यह हो गया कि बाहर की साधन-सामग्री को प्राप्त करना सुख पाना नहीं, उसमें आसक्त होना आनन्द नहीं, उससे स्नेह करना शान्ति का कारण नहीं, अपितु दुःख एवं अशान्ति का ही कारण है। कदाचित् रहना पड़े तो इनके बीच में रहकर भी हम आसक्ति से, राग से, द्वेष से और स्नेह से किनारा करें, अपने जीवन को शान्ति के साधन में लगावें और शास्त्रों की आज्ञा का पालन करें। यह हमारे जीवन को आनन्द का मार्ग बताने वाला साधन है। . दृढ संकल्प • जब बच्चे, बच्चियाँ, पत्नी या परिवार के अन्य सदस्य अपनी इच्छानुसार कार्य नहीं होने पर अपना मूड बदल लेते हैं, तब उनके बीच में संघर्ष पैदा होता है। पर जिसने पहले से ही दृढ़ संकल्प लेकर जीवन चलाया है कि उसे अपनी इच्छा के अधीन नहीं चलना है, उसको कोई तकलीफ नहीं होती। , जहाँ तक समझने की बात है, युवकों के मन में शंकाएँ होती हैं, एतराज होते हैं, लेकिन वे समय की उलझन का | समाधान नहीं करेंगे तो बाद में कहेंगे कि इच्छा तो थी महाराज ! पर समय नहीं मिला। इसलिए धर्म की आराधना नहीं कर सके। यदि इस तरह से ज्ञान के क्षेत्र में आपने संकल्प नहीं किया और खुले रह गये तो कुछ नहीं कर पायेंगे। द्रव्य और पर्याय का अध्यात्म • कोई मानव शोक तब करता है, जब द्रव्य को भुलाकर पर्याय में उलझता है। पर्याय की पहचान द्रव्य का बदलता हुआ स्वभाव है। हम चाहते हैं कि सदा एक तरह की सुखद स्थिति रहे । जैसी अवस्था आज है, वैसी ही सदा बनी रहे। जैसा शरीर आज है वैसा सदा रहे। लेकिन पर्याय कहता है कि जैसा इस क्षण में हूँ वैसा दूसरे क्षण में रहने वाला नहीं । पर्याय बदलने वाली दशा है, लेकिन आप टिकने वाली दशा चाहते हैं। • यदि आपने रहवास का पुराना मकान बदल कर सुन्दर कोठी बना ली तो पुराने मकान को छोड़ने पर आपको दुःख नहीं होता। आप यह अच्छी तरह जानते हैं कि जिस प्रकार पुराने जेवर को तुड़वाने और उससे नया जेवर घड़वाने में सोना अपने वास्तविक स्वरूप में विद्यमान रहता है उसी प्रकार एक प्राणी की मृत्यु के पश्चात् भी
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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