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__नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ३९२
करुणा भी पाप हो जाएगी। यह अर्थ दया-दान प्रधान जैन-परम्परा से विपरीत है। • भूखे कुत्ते को या अन्य पीड़ित जीवों को अन्न आदि देना अनुकम्पा की प्रेरणा है। क्षुधा, पिपासा, अशान्ति और
आर्ति मिटाने में जो अनुकम्पा की भावना होती है, वह पुण्य है। उसे कर्मादान में सम्मिलित नहीं समझना
चाहिए। कर्मादानों का सम्बन्ध विशिष्ट पापकर्मों के साथ है। • आप हजारों रुपयों का दान करते हैं। गरीबों के पास कुछ ज्यादा चला गया तो क्या बुरा है, लेकिन आपको यह
बात बर्दाश्त नहीं होती। आप चाहेंगे कि उसको आठ आने कम दिये जायें। यह भी एक तरह का पाप है और
इसलिए लगता है कि आपमें परिग्रह बुद्धि है, पैसे पर ममता है। • कई बार अवसर आता है कि एक भाई ५० हजार रुपयों तक का दान देने को तैयार है। उसका आग्रह होता है
कि चाहे लाख रुपये का दान ले लो, लेकिन उस पर नाम उसका होना चाहिए। लेने वालों ने कहा कि ऐसा तो नहीं हो सकेगा। 'यदि ऐसा नहीं होगा तो फिर मेरे ५ हजार रुपये टीप में लिख लो।' यह है देने वालों की
मानसिकता। • यदि तुझे किसी को दान देना है तो जो दरिद्र है, तेरे से कमजोर है, गरीब है, साधनहीन है, उसको दे। जो पहले
से ही साधन-सम्पन्न है, जिसके पैसे का हिसाब तैयार करने के लिये चार आदमी बैठते हैं उसको देने से क्या
लाभ? • दान की यह विशेषता है कि वह स्व और पर दोनों का कल्याण करता है। दान देने की प्रवृत्ति तभी जागृत होगी | जब मानव के मन में अपने स्वत्व की, अपने अधिकार की वस्तु पर से ममता हटेगी। ममत्व हटने पर जब उसके अन्तर में सामने वाले के प्रति प्रमोद बढ़ेगा, प्रीति बढ़ेगी और उसे विश्वास होगा कि इस कार्य में मेरी सम्पदा का उपयोग करना लाभकारी है, कल्याणकारी है, तभी वह अपनी सम्पदा का दान कर सकेगा। दान की प्रवृत्ति में जो अपने द्रव्य का दान करता है, वह केवल इस भावना से ही दान नहीं करता कि उससे उसको अधिक लाभ होगा, बल्कि उसके साथ यह भावना भी है कि यह परिग्रह दुःखदायी है, इससे जितना
अधिक स्नेह रखुंगा, मोह रखूगा, यह उतना ही अधिक क्लेशवर्धक तथा आर्त एवं रौद्र-ध्यान का कारण बनेगा। • गृहस्थ यदि शीलवान् नहीं है तो उसके जीवन की शोभा नहीं। जिस प्रकार शीलवान होना गृहस्थ जीवन का
एक आवश्यक अंग है, उसी तरह अपनी संचित संपदा में से उचित क्षेत्र में दान देना, अपनी संपदा का विनिमय करना और परिग्रह का सत्पात्र में व्यय करना, यह भी गृहस्थ-जीवन का एक प्रमुख अंग, सुन्दर भूषण और मुख्य
कर्तव्य है। • अगर हर व्यक्ति तप-त्याग के साथ शुभ कार्यों में अपने द्रव्य का सही वितरण करता रहे तो “ एक-एक कण
करते-करते मण” इस उक्ति के अनुसार पर्याप्त धन-राशि बन जाती है। आपका अन्न दान, जल दान, वस्त्र दान, द्रव्य दान आदि सारे के सारे दान खूटने वाले हैं, लेकिन मुनियों का दान अखूट (अक्षय) होता है। मुनियों के लिए कहा है कि संसार से थोड़ा द्रव्य दान लो और भावदान दो। • साधु ज्ञान दान देता है, चारित्र दान देता है। जो भाई व्यसन करने के आदी हैं, उनको उपदेश देकर व्यसनों का निवारण कराता है। शिक्षा देकर सदा-सदा के लिए दुर्व्यसन छुड़ाकर दुःख से मुक्त कराता है, क्लेश से मुक्त कराता है। घर में जहाँ विग्रह या कषाय होता है, भाइयों में, परिवार के बीच में झगड़ा होता है तो साधु उनको