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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं करके रात-रात भर जोर-जोर से गाने और संगीत किये जाते हैं। अड़ोस-पड़ोस के लोगों की इससे निद्रा भंग होती है। तो यह तपस्या का भूषण नहीं, दूषण हुआ। हमारे भजन, प्रभु-स्मरण आदि आत्मा की शांति के लिये किये जाते हैं, दूसरे की शांति अथवा विश्व की कल्याण-कामना के लिये किये जाते हैं। इसमें भी उच्च स्वर मना है-जाप में भी मना है। तपस्या के नाम पर तीन बजे उठ कर गीत गाया जावे तो यह गलत है। फिर इसमें भी आप प्रभु स्मरण या सीमन्धर प्रभु को याद नहीं करेंगी। बल्कि सारे कुटुम्ब के नामों की फहरिस्त पढ़ेंगी। दादा, परदादा, बेटे पोते, भाई, भतीजों के नाम की माला जपेंगी। यह जप, यह नाम-उच्चारण कर्म-निर्जरा का साधन नहीं। यह तप में विकृति है, तप का विकार
• विकृतियों और विकारों से बचकर, शृंगार का वर्जन करके माताएँ-बहिनें तीन बातें -स्मरण, स्वाध्याय और स्मृति को लेकर तप में आगे बढ़ेगी तो यह तप उनकी आत्म-समाधि का कारण बनेगा, शान्ति और कल्याण का हेतु बनेगा, दूसरों की और विश्व की शान्ति एवं कल्याण का कारण बनेगा। इसे पर्व दिनों का ही नहीं, प्रतिदिन का अंग बनाएँ, क्योंकि सामायिक के कर्तव्य में यह भी एक कर्तव्य है। प्रत्येक जैन बन्धु अपने जीवन में यदि प्रारम्भ से ही रस-परित्याग अथवा द्रव्य-त्याग की तपस्या को अपना ले, तो वह स्वस्थ भी रहेगा और उसे इस तपश्चर्या का भी लाभ प्राप्त होगा। इस तरह रस-परित्याग तप सभी दृष्टियों से लाभप्रद है, अत: प्रत्येक भाई को चाहिये कि वह प्रतिदिन छह रसों में से कम से कम एक रस का भी त्याग करे तो यह भी एक तपस्या होगी। • भगवान महावीर ने कहा कि तप करो, लेकिन इस लोक की कामना के वश होकर नहीं। परलोक में स्वर्ग का सिंहासन मिले इसलिए भी तपस्या नहीं करना। दुनिया में तारीफ हो इसलिए भी नहीं करना । हजारों लोग मुझे धन्यवाद देंगे और तपस्या की छवि अच्छी होगी, जलसा अच्छा होगा, इस भावना से कोई तपस्या करता है तो वह साधक अपनी तपस्या की कीमत घटा देता है। • तपस्या और ध्यान में पहली बात यह है कि मन और मस्तिष्क हल्का होना चाहिए। कल मस्तिष्क भारी था और
आज हल्का है तो समझना चाहिए कि आपको तप का लाभ मिला है। यह इस बात की परीक्षा है कि धर्म का आचरण हुआ या नहीं। यह थर्मामीटर की तरह एक मापक यंत्र के समान है। हमारे मस्तिष्क में हल्कापन आया, प्रसन्नता हुई है, प्रमोद आया है तो समझना चाहिए कि धर्म का स्वरूप आया है। तप के भेद
• तप के दो प्रकार हैं। एक का असर शरीर पर पड़ता है और दूसरे का असर मन पर पड़ता है। जिसका असर
शरीर पर पड़े उसको कहते हैं बाह्य तप और जिसका असर मन पर पड़े वह है आन्तरिक तप ।। • शारीरिक और आभ्यन्तर-ये दोनों प्रकार के तप साथ-साथ होने चाहिये । केवल एक की साधना से वांछित फल
नहीं मिलने वाला है। उदाहरण के रूप में लीजिये - एक भाई ने उपवास किया, तो यह उस भाई का शारीरिक तप हो गया। इस शारीरिक तप के साथ-साथ उसे स्वाध्याय, ध्यान, प्रभुस्मरण और बारह भावनाओं के चिन्तन-मनन के रूप में आभ्यन्तर तप भी अनिवार्यरूपेण करना चाहिये। पर व्याख्यान समाप्त होने पर यह देख कर कि महाराज चले गये, वह भाई बिस्तर फैला कर सो जाय, तो उसे इस प्रकार के एकांगी शारीरिक तप से