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आमुख कराया है- "बालक रत्न भी बन सकता है और टोळ भी। माता-पिता को चाहिए कि अपना दायित्व समझकर बालकों के सुन्दर जीवन निर्माण की ओर लक्ष्य दें। अन्यथा हाथ से तीर छूट जाने पर इलाज मुश्किल है।"
साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका रूप चतुर्विध संघ से ही धर्मरथ आगे बढ़ता है तथा सभी को अपने आध्यात्मिक उन्नयन एवं जीवन-निर्माण का अवसर मिलता है। साधु एवं साध्वी, श्रावक-श्राविका समुदाय के मार्गदर्शक होते हैं, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि श्रावक-श्राविकाओं का संघ के प्रति कोई कर्तव्य नहीं होता। आपने श्रावकों को कर्तव्य का बोध कराते हुए फरमाया- "श्रावक का कर्तव्य है कि वह साधु की संयम-साधना में सहायक बने। राग के वशीभूत होकर ऐसा कोई कार्य न करे, ऐसी कोई वस्तु देने का प्रयत्न न करे जिससे साधु का संयम खतरे में पड़ता हो।"जिनशासन एवं धर्म के शद्ध स्वरूप की रक्षा का दायित्व मात्र साघओं का ही नहीं होता, श्रावकों का भी इस संबंध में उतना ही दायित्व बनता है- “शासन एवं धर्म-रक्षण का कार्य केवल साघुओं का ही समझना भूल है। साधु की तरह श्रावक-संघ का भी उतना ही दायित्व है।"श्रावकों को अहिंसा, निर्व्यसनता आदि के प्रचार हेतु तत्पर होकर काम करने की प्रेरणा आपने इस प्रकार की- "सैकड़ों आदमी आपके सम्पर्क में आते हैं, यदि व्यवहार के साथ अहिंसा, निर्व्यसनता आदि का प्रचार करें तो अच्छा काम हो सकता है।"स्वाध्याय,सामायिक एवं साधना के साथ आपने व्यसन-त्याग और ब्रह्मचर्य की साधना पर विशेष बल दिया।
संघ एवं समाज के अस्तित्व के लिए आप प्रेम एवं सौहार्द का वातावरण आवश्यक मानते थे। कलह एवं झगड़े को आप विनाश का हेतु मानते थे, जैसा कि आपके चिन्तन से स्पष्ट होता है- "बांस भी लड़कर भस्म हो जाते हैं, मनुष्य को इससे शिक्षा लेनी चाहिए।"संघ के महत्त्व के संबंध में आपका चिन्तन था- "मोक्षमार्ग के साधक को प्रमाद और कषाय आदि के कारण साधना से स्खलना या उपेक्षा करने पर योग्य प्रेरणा की आवश्यकता रहती है, जो संघ में मिल सकती है। संघ में आचार्य आदि के द्वारा सारणा, वारणा और धारणा का लाभ मिलता रहता है। संघ के आश्रित साधुओं की रोगादि की स्थिति में संभाल की जाती है, ज्ञानार्थियों के ज्ञान में सहयोग दिया जाता है, अशुद्धि का वारण किया जाता है और शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा को टालकर सम्यक् मार्ग की धारणा करायी जाती है। शिथिल श्रद्धा वालों को बोध देना और शिथिल विहारी को समय-समय पर प्रेरणा करना संघ का मुख्य कार्य है।"
परिवार में सौहार्द का सूत्र देते हुए आपने फरमाया- "एक का दिल-दिमाग बिगड़े, उस समय दूसरा संतुलित होकर मन को संभाल ले तब भी बिगड़ा हाल सुधर जाता है।" सौहार्द के लिए विनय को भी आप उपयोगी मानते थे- “घर-कुल और समाज की सुव्यवस्था और परस्पर के मधुर संबंध बनाये रखने का उपाय विनय है।"निर्व्यसनता के संबंध में आपका कैसा तार्किक एवं प्रेरक कथन है- “जिससे धनहानि हो एवं जीवन दुःखमय हो, वैसी कोई कुटेव (कुव्यसन) नहीं रखनी चाहिए।" बाह्य ग्रहों से भयभीत लोगों के सद्बोध हेतु आपका यह कथन पर्याप्त है- “भीतरी ग्रहों का शमन करने पर बाहर के ग्रहों का कोई भय नहीं रहता।"भीतरी ग्रहों से तात्पर्य है-काम, क्रोध, मद, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष आदि काषायिक परिणतियाँ। जो इनका शमन कर विजय प्राप्त करने में सफल हो जाता है, उसे आकाश के बाह्य ग्रह-नक्षत्रों से न तो किसी प्रकार के अनिष्ट की आशंका होती है और न ही किसी प्रकार का भय। जैन धर्म की स्पष्ट मान्यता है- 'अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अर्थात् आत्मा ही अपने सुख एवं दुःख का कर्ता तथा भोक्ता है। इसलिए लौकिक कामनाओं के लिए अन्य ग्रहों की पूजा करना आदि जैन मान्यता में कथमपि उचित नहीं है।
अध्यात्म के उच्च साधक को किसी प्रकार की लौकिक अभिलाषा पीडित नहीं करती है। शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति उनकी स्वतः होती रहती है। वे वस्तुओं के दास नहीं होते, अपितु वस्तुएँ उनकी दास)