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________________ ३६४ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं बढ़ना और भंग से ज्ञान घटना, इसमें किसी गुरु की कृपा अकृपा कारण नहीं है, वैसे भले बुरे कर्म भी बिना किसी न्यायाधीश के अपने शुभाशुभ फल देने में समर्थ होते हैं । • बाल जीवों को ईश्वर की ओर आकृष्ट करने के लिए सकता है कि विद्वानों ने उसे एक राजा की तरह बतलाया हो, पर वास्तव में ज्ञान दृष्टि से सोचने पर मालूम होगा कि ईश्वर तो शुद्ध एवं द्रष्टा है। वह हमारी तरह कर्म या कर्मफल भोग का कर्त्ता धर्त्ता नहीं है • भक्त ने पूछा - सृष्टि की आदि कब से है ? और कैसे हुई ? इसके उत्तर में सबसे पहले आपको एक अनादि सिद्धान्त ध्यान में लेना चाहिये कि "नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः” सर्वथा असत् वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती और सत् पदार्थों का सर्वथा नाश नहीं होता। आप जानते हैं कि सुवर्ण की डली को भस्म बनाकर उड़ा दिया जाए तब भी परमाणु रूप में सोना कायम ही रहता है। इसी प्रकार संसार के जड़ चेतन पदार्थ भी सदा विद्यमान रहते हैं। कभी उनका सर्वप्रथम निर्माण हुआ हो, ऐसा नहीं, जड़ चेतन का विभिन्न रूप में संयोग ही सृष्टि की विचित्रता का कारण है। I ■ उपवास • अठारह पापों को खुला रखें और उपवास करें, केवल न खाने का नियम लेकर रह जाएँ, यह काफी नहीं है । त्याग या उपवास व्रत में विषय- कषायों का भी त्याग होना चाहिए। आचार्यों ने उपवास के लिए तीन बातें बताई हैं, जैसे विषयकषायाहाराणां त्यागो यत्र विधीयते । उपवासः स विज्ञेयः शेषं लंघनकं विदुः ॥ जिसमें शब्द, रूपादि विषय का त्याग हो, कषाय का त्याग हो और फिर अन्न का त्याग हो, वह उपवास है । आज हमने विषय और कषाय को तो नहीं छोड़ा, केवल अन्न का त्याग करके संतोष मान लिया। लेकिन अन्न के त्याग के साथ विषय-कषाय के त्याग की बात को भूलना नहीं चाहिए । यदि विषय कषाय का त्याग साथ रखते हुए उपवास करेंगे तो हमारा जीवन हल्का होगा। इसलिए हमको विषय कषाय को छोड़ना है और ज्ञान, दर्शन, चारित्र की साधना में आगे बढ़ना है। I • उपवास तो किया, पर केवल एक घंटा धर्मस्थान में बैठे और रात भर का तथा दिन भर का आपका समय आस्रव में खुला रहा तो उपवास करके भी क्या किया ? केवल आहार छोड़ा । आयुर्वेद की दृष्टि से भी बीमारी के निदान में उपवास का विधान अति हितकारी माना गया है। अनेक रोगों में उपवास का बड़ा ही चमत्कारी लाभ होता है और अनेक रोग उपवास द्वारा घर बैठे ही अपने आप दूर हो जाते हैं। यदि मनुष्य नियमित रूप से उपवास करके अपने पेट को विश्राम देता रहे तो उसे व्याधियाँ परेशान नहीं करेंगी। लेकिन जो व्यक्ति असमय, अनियंत्रित भोजन करते रहते हैं और अपने पेट की मशीनरी को जरा भी आराम नहीं देते उन्हें अक्सर अनेक रोग घेर लेते हैं। मल शोधन की क्रिया बराबर नहीं होने से आंतें एवं उनके आस-पास का भाग भी प्रभावित हो जाता है। इसके कारण पेट भारी हो जाता है तथा उसमें वायु भर जाती है। जिसके फलस्वरूप उबकाई आना, पेट में दर्द, भारीपन, सिरदर्द, बुखार, मंदाग्नि, घबराहट, बेचैनी आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। मानसिक रोगों में भी उपवास बड़ा प्रभावकारी सिद्ध हुआ है। उपवास से सात्त्विक भाव का जागरण और तामस - राजस भाव का विनाश होता है। उपवास के बाद गरिष्ठ भोजन नहीं लेना चाहिए। बाल,
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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