________________
नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ३३० • जिन धर्म अमृत सागर है। अमृत सागर के पास जाकर प्यासा आवे तो लोग मूर्ख कहेंगे। यह अमृत अनन्तकाल
की तृषा मिटाता है। • समाज पक्ष में कारीगर बनना है, मजदूर नहीं। सुई बनना है, कैंची नहीं। • श्रावक और साधु में स्पर्शनाव्रत का अन्तर है। श्रद्धा तो दोनों की एक है।
दुरुपयोग से दानवों ने प्राप्त वर को खो दिया और नाश के भागी बने। इस प्रकार अनन्त ज्ञानादि, निधि को पाकर जो हिंसा, झूठ मान, बड़ाई और भोगों में खो देगा, उसे पछताना पड़ेगा। ऐसा न करो। • सत्कर्म के बिना मनुष्य इस भूमि पर ही नरक बना लेता है। • व्यसन छोड़िए, शीलधर्म की आराधना कीजिए और रात्रि-भोजन का त्याग कीजिए। • मनुष्य का भाग्य और कुछ नहीं, अपने ही किये हुए पुरुषार्थ का परिणाम है। • ज्ञान एवं वैराग्य की शिक्षा से पापी भी सुधर सकते हैं।
दरिया में सोने की शिला पकड़ कर चलने वाला डूबता और काष्ठ पट्ट लेने वाला तिरता है। यही हाल जग में |
धन और धर्म का है। धन डुबाता और धर्म तिराता है। • शस्त्रधारी सेना देश का धन बचा सकती है, पर शास्त्रधारी सेना जीवन बचाती है। क्योंकि हिंसा, झूठ चोरी, |
व्यभिचार-भ्रष्टाचार शस्त्रबल से नहीं, शास्त्रबल से छूटते हैं। आचरणवान् या क्रियाशील ही देश-धर्म का उत्थान कर सकते हैं। महावीर के मार्ग और उनकी सभा में बुझदिलों का काम नहीं है। वहाँ सब कुछ प्रसन्नता से अर्पण करने वाला ||
चाहिए। • व्यर्थ श्रम, वाणी, क्रोधादिविकल्प, अमर्यादित भ्रमण और व्यसन में बचत करना जीवन की निधि है।
भौतिकता के प्रभाव में जो लोग जीवन को उन्नत बनाना भूल जाते हैं, वे संसार में कष्टानुभव करते है और
जीवन को अशान्त बना लेते हैं। • मनुष्य सोचता है कि झूठ बोलना नहीं छोड़ा जाता, किन्तु जब एक दिन अभ्यास कर लोगे तो मन में हिम्मत आ
जायेगी। फिर आगे बढ़ सकोगे। • धर्म नीति प्राणिमात्र में बन्धुभाव उत्पन्न करती है। क्रोध की आग में वह प्रेम के अमृतजल का सिंचन करती है। • बालक रत्न भी बन सकते हैं और टोल भी। माता-पिताओं को चाहिए कि अपना दायित्व समझकर बालकों के
सुन्दर जीवन-निर्माण की ओर लक्ष्य दें। अन्यथा हाथ से तीर छूट जाने पर लाइलाज है। दुनिया के बड़े लोग सत्संग में इसलिए भी संकोच करते हैं कि वहाँ साधारण लोगों के साथ बैठना होता है। सिनेमा में उनकी पोजीशन डाउन नहीं होती, पर सत्संग में हो जाती है, कितनी विचित्र बात है। • आप गुणज्ञ बनें, तभी सच्चा लाभ ले सकेंगे। • सद्गृहस्थ धर्मप्रधान दृष्टि रखते हुए अर्थसाधना करता है। सद्गृहस्थ को चाहिए कि वह प्रतिदिन इसका निरीक्षण
करे कि मेरा ‘अर्थ साधन' धर्म के विपरीत तो नहीं जाता। उसका दृष्टिकोण उस किसान की तरह होता है जो