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________________ ३२८ बनता है। धर्म एकान्त मंगलमय है । वह आत्मा, समाज, देश तथा अखिल विश्व का कल्याणकर्त्ता और त्राता है । आवश्यकता इस बात की है कि जनता के मानस में धर्म और नीति के प्रति आस्था उत्पन्न की जाए । · जो शासन धर्मनिरपेक्ष नहीं, धर्मसापेक्ष होगा वही प्रजा के जीवन में निर्मल, उदात्त और पवित्र भावनाएँ जागृत कर सकेगा। · • • • नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं • • प्रत्येक साधनापरायण व्यक्ति को चार बातें ध्यान में रखनी चाहिये - (१) स्थिर आसन (२) स्थिर दृष्टि (३) मित भाषण और (४) सद्विचार में निरन्तर रमणता । इन चार बातों पर ध्यान रखने वाला लोक-परलोक में लाभ का भागी होता है। जिसके मन में संयमी होने का प्रदर्शन करने की भावना नहीं है, वरन् जो आत्मा के उत्थान के लिये संयम का पालन करता है, वह संयम में आयी हुई मलिनता को क्षण भर भी सहन नहीं करेगा। • ज्ञानावरण का क्षयोपशम कितना ही हो जाय, यदि मिथ्यात्व मोह का उदय हुआ तो वह ज्ञान मोक्ष की दृष्टि से कुज्ञान ही रहेगा। व्रती पुरुष कुटुम्ब, समाज तथा देश में भी शान्ति का आदर्श उपस्थित कर सकता है और स्वयं भी अपूर्व शान्ति का उपभोक्ता बन जाता है 1 परस्पर सापेक्ष सभी गुणों की यथावत् आयोजना करने वाला ही अपने जीवन को ऊँचा उठाने में समर्थ हो सकता है। अनुभव जगाकर अपने ज्ञान-बल से भी बहुत से व्यक्ति वस्तुतत्त्व का बोध प्राप्त कर सकते हैं। पर इस प्रकार बोध प्राप्त करने के अधिकारी कोई विशिष्ट व्यक्ति ही होते हैं । निसर्ग से ज्ञान उत्पन्न होने की स्थिति में इधर उपादान ने सिद्धि की और जोर लगाया तो निमित्त गौण रहा, उपादान प्रधान रहा । दूसरी ओर अधिगमादि निमित्त के माध्यम से ज्ञान उत्पन्न होने की दशा में निमित्त प्रधान रहता है और उपादान गौण । प्रत्येक कार्य की निष्पत्ति में उपादान और निमित्त ये दोनों ही कारण चलते हैं। पाँचों व्रतों का यथाशक्ति आगार के साथ पालन, भोगोपभोग का परिमाण, अनर्थ दण्ड से बचना आदि पाप को घटाने के साधन हैं । विनय तप के अहर्निश आराधन से, साधारण से साधारण साधक भी गुरुजनों का अनन्य प्रीतिपात्र या कृपापात्र बन कर अन्ततोगत्वा सर्वगुण सम्पन्न हो, ज्ञान का भण्डार और महान् साधक बन जाता है I · जैसे बिना पाल के तालाब में पानी नहीं ठहरता वैसे ही बिना व्रत के जीवन में सद्गुणों का पानी समाविष्ट नहीं हो सकता, अतः श्रावक अपने में व्रत की पाल अवश्य बांधे । • जीव दो प्रकार के होते हैं- एक भवमार्गी और दूसरे शिवमार्गी । विश्वभर में अनन्तानंत प्राणी भव मार्ग का अनुगमन कर रहे हैं। उनकी कोई गुण गाथा नहीं गायी जाती । उनका उल्लेख कहीं नहीं होता। उनका कोई पता नहीं होता कि किधर से आये और किधर गये। दूसरी ओर शिवमार्गी वे जीव हैं, जो संख्या में असंख्य नजर नहीं आते, किन्तु शास्त्रों में, सत् - साहित्य में उन्हीं की गुण - गाथा गायी हुई है।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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