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________________ (द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ३२५ . वास्तव में जैन-शास्त्रों में प्रदर्शित श्रावक-धर्म में किसी भी काल के आदर्श की असीम संभावनाएँ निहित हैं । • जो अत्यल्प साधनों से ही अपना जीवन शान्तिपूर्वक यापन करता है उसे प्रभु और प्रभुता दोनों मिलते हैं। राजा की आज्ञा में बल होता है दण्ड का और महात्मा के आदेश में बल होता है ज्ञान और करुणाभाव का। ज्ञानी पुरुष के हृदय रूपी हिमालय से करुणा, वात्सल्य और प्रेम की सहस्र-सहस्र धाराएँ प्रवाहित होती रहती हैं | और वे प्रत्येक जीवधारी को शीतलता और शान्ति से आप्लावित करती रहती हैं। प्रत्येक मनुष्य सबके प्रति प्रीति और अहिंसा की भावना रखकर अपनी जीवनयात्रा सरलता व सुगमता से चला सकता है। आघात-प्रत्याघात से ही जीवन चलेगा, ऐसा समझना भ्रम है। • किसी प्राणी को कष्ट न पहुँचाना, छेदन-भेदन न करना, यह द्रव्य-दया है। राग-द्वेष उत्पन्न न होना भावदया है। • जीवन को परममंगल की ओर अग्रसर करने के लिए केवल द्रव्य-दया पर्याप्त नहीं है, भाव-दया भी चाहिए। भाव-दया के बिना जो द्रव्य-दया होती है, वह प्राणवान् नहीं होती। राग-द्वेष भावहिंसा है। भावहिंसा करने वाला किसी अन्य का घात करे या न करे , आत्मघात तो करता ही है उसके आत्मिक गुणों का घात होता ही है । • श्रावक को तोलने और मापने में अनुचित-अनैतिक लाभ लेने की प्रवृत्ति नहीं रखनी चाहिए। छल-कपट का सेवन करके, नीति की मर्यादा का अतिक्रमण करके और राजकीय विधान का भी उल्लंघन करके | धनपति बनने का विचार करना अत्यन्त गर्हित और घृणित विचार है। ऐसा करने वाला कदाचित् थोड़ा बहुत जड़-धन अधिक संचित कर ले, मगर आत्मा का धन लुटा देता है और आत्मिक दृष्टि से वह दरिद्र बन जाता है। | • श्रावक-धर्म का अनुसरण करते हुए जो व्यापारी व्यापार करता है, वह समुचित द्रव्योपार्जन करते हुए भी देश और समाज की बहुत बड़ी सेवा कर सकता है। • श्रावक अपने अन्तरंग और बहिरंग को समान स्थितियों में रखता है। वचन से कुछ कहना और मन में कुछ और रखना एवं क्रिया किसी अन्य प्रकार की करना श्रावक-जीवन से संगत नहीं है। श्रावक भीतर-बाहर में समान होता है। जिन्हें उत्तम धर्म-श्रवण करने का सुअवसर मिला है, उन्हें दूसरों की देखादेखी पाप के पथ पर नहीं चलना चाहिए। उनके हृदय में दुर्बलता, कुशंका और कल्पित भीति (भय) नहीं होनी चाहिए। ऐसा सच्चा धर्मात्मा अपने उदाहरण से सैंकड़ों अप्रामाणिकों को प्रामाणिक बना सकता है और धर्म की प्रतिष्ठा में भी चार-चाँद लगा सकता है। धर्म-शिक्षा को जीवन में रमाने के लिए काम-वासना को उपशान्त एवं नियन्त्रित करना, मोह की प्रबलता को दबाना और अमर्यादित लोभ का निग्रह करना आवश्यक है। , जब आत्मा में सम्यग्ज्ञान की सहस्र-सहस्र किरणें फैलती हैं और उस आलोक से जीवन परिपूर्ण हो जाता है, तब काम, क्रोध और लोभ का सघन अन्धकार टिक ही नहीं सकता। मनुष्य के अन्त:करण में व्याप्त सघन अन्धकार को जो विनष्ट कर विवेक का आलोक फैला देता है, वह 'गुरु' कहलाता है।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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