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________________ (द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ३२३ • व्यवहार जगत में दूसरे का माथा मूंड लेने वाला भले ही चालाक कहलावे, परन्तु यह कला, कला नहीं, वरन् || भीतर-बाहर दोनों ओर से कालापन ही है। • पुण्य-पाप को समझने वाला व्यक्ति जालसाज लोगों को सुखी देखकर भी दोलायमान या चंचल चित्त नहीं | होगा, क्योंकि मनुष्य कई जन्मों के कर्म के कारण सुख-दुःख पाता है। . साधना के मार्ग में चलने से मनुष्य में निर्भयता आती है। • जीवन-परिवर्तन में प्रमुख कारण काल, स्वभाव, कर्म-संयोग, परिस्थिति और अध्यवसाय हैं। • ज्ञान, विवेक, सद्भाव एवं शुभ रुचि के अभाव में मानव बाह्य पुण्य का फल पाकर भी नीचे गिर जाता है। • पापों से बचने की दृष्टि वाला साधक किसी भी व्यक्ति में गुणों को देखकर आदर करता है, यह सम्यक् दृष्टि | • गृहस्थ भी यदि ज्ञान का धनी है, तो वह साधु-सन्तों के लिए आकर्षण का केन्द्र बन जाता है। • धर्म-स्थान में साज-शृंगार करके आना दूषण है। • परमार्थ का परिचय करने के लिए सत्शास्त्र एवं सत्संग दो साधन हैं। • जिसकी संगति से सुबुद्धि उत्पन्न हो, दुर्व्यसनों का परित्याग हो और अहिंसा, सत्य तथा प्रभु में मानव की प्रवृत्ति || हो, वह सुसंगति है। • ज्ञान-प्राप्ति के लिए ज्ञानवान की संगति आवश्यक है। इसी प्रकार अज्ञानी और मिथ्यादर्शनी का संग जो दूषण || रूप है, त्याज्य है। • विचार की भूमिका पर ही आचार के सुन्दर महल का निर्माण होता है। विचार की नींव कच्ची होने पर आचार के भव्य प्रासाद को धराशायी होते देर नहीं लगती। • अपशब्द के प्रत्युत्तर में निरुत्तर रहना, अपशब्द बोलने वाले को हराने की सर्वोत्तम कला है। काँटे का जवाब फूल से देना सज्जनाचार है। • जिस धन और साधन से जीवन सुधरे, वास्तव में वही धन और साधन उत्तम है। • चाहे साधु-धर्म हो या गृहस्थ-धर्म, सम्यग्दर्शन की दृढ़ भूमिका, दोनों के लिए अत्यावश्यक है। • पाप और दुःख इन दोनों में कारण-कार्य भाव है। • स्वार्थ की भावना से व्रत करना, व्रत के महत्त्व को कम करना है। सम्यग्दर्शनी दिखावे से आकर्षित नहीं होता, क्योंकि दिखावे की ओर झुकने वाला कभी -कभी ठगा जाता है। भीतर का मूल्य जहाँ ज्यादा होगा, वहाँ बाह्य दिखावा कम होगा। कांसे की थाली के गिरने पर अधिक आवाज होती है वैसी सोने की थाली के गिरने पर नहीं होती। मूल्य सोने की थाली का अधिक है, अतः उसमें झनझनाहट कम है। परिग्रह आत्मा को पकड़ने वाला है, जकड़ने वाला है, यह दुःख और बन्ध का पहला कारण है। जिन-शासन त्यागियों का शासन है, रागियों का नहीं।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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