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________________ द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ● मनुष्य को मधुमक्खी की तरह बनना चाहिए न कि मल ग्रहण करने वाली मक्खी के समान । पुत्र की अपेक्षा पुत्रियों में सुशिक्षा और सुसंस्कार इसलिए आवश्यक हैं कि उन्हें अपरिचित घरों में जाना तथा जीवनपर्यन्त वहीं रहना है। • · लड़की यदि सुशीला और संस्कारवती होगी तो परिवार को प्रेम के बल पर अविभक्त और अखंड रख सकेगी। • जो विरोधाग्नि का मुकाबला शान्ति के शीतल जल से करते हैं, वे विरोधी को भी जीत लेते हैं । जो ज्ञानी होकर स्वयं जागृत हैं, जड़ पदार्थ उसे अपनी धारा में नहीं बहा सकते हैं । • • • वस्त्राभूषणों की तरह सादगी का भी असर कुछ कम महत्त्व वाला नहीं होता । • राजमहल का विराट् वैभव-प्रदर्शन यदि दर्शकों को अपनी ओर आकृष्ट करता है तो एक सादी पावन कुटिया भी चित्त को चकित किये बिना नहीं रहती । • • • • साधना के मार्ग में लगकर यदि साधक प्रमाद में पड़ जाए, कुछ भी हाथ नहीं लगेगा । • उपासना में तन्मयता अपेक्षित है, अन्यथा “माया मिली न राम" की स्थिति होगी । • · श्रद्धा की दृढ़ता न होने से मनुष्य अनेक देव-देवी, जादू-टोना और अंधविश्वास के फेर में भटकते रहते हैं। • ज्ञानवान मनुष्य अशान्ति के कारणों को नियंत्रित कर लेता है । आवश्यकता तो प्राणिमात्र को रहती है । अन्तर इतना ही है कि एक आवश्यकता को बांध लेता है और दूसरा आवश्यकताओं से बंधा रहता है। परिणामतः पहला उतना दुःखी नहीं होता और दूसरा अशान्त तथा दुःखी हो जाता है 1 ३१९ भौतिक तुच्छ वस्तुएँ, साधारण मनुष्य के मन को हिलाकर अशान्त कर देती हैं किन्तु ज्ञानी पर इनका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता, उल्टे वह इन्हीं पर अपना प्रभाव जमा लेता है। · व्यक्ति-जागरण के बिना समाज - धर्म पुष्ट नहीं होता, कारण कि व्यक्तियों का समूह ही तो समाज है । स्वेच्छा से उपवास करना शमन है, किन्तु व्यक्ति के आगे से परोसी हुई थाली खींच लेना दमन है । पर्व के द्वारा सामूहिक साधना का पथ प्रशस्त होता है एवं इससे समुदाय को साधना करने की प्रेरणा मिलती है, जिससे राष्ट्रीय- जीवन का संतुलन बना रहता है 1 मनुष्य यदि अपनी वृत्ति, विवेकपूर्ण नहीं रखे तो वह दूसरों के लिए घातक भी बन सकता है। असंयत मानवता पशुता और दानवता से भी बढ़कर बर्बर मानी जाती है तथा 'स्व-पर' के लिए कषाय का कारण हो जाती है। • समाज में कोई दुःखी है, तो समाज के धनी व्यक्तियों पर यह दायित्व है कि वे उसकी योग्य सहायता करें। पाप-कर्म करने के बाद धर्मादा देने की अपेक्षा पहले ही पापों से दूर रहना अच्छा है। · विरोध का विरोध से और गाली का गाली से प्रतिकार करने पर संघर्ष बढ़ता है। • सद्भाव मधुर पानी का तथा दुर्भाव खारे पानी का स्रोत है। संताप घटाने के लिए मनुष्य को अपनी आवश्यकताएँ घटानी चाहिए । ·
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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