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(द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
३१७ • मनुष्य-जीवन पूर्ण अभ्युदय का आधार है, उसे व्यर्थ में गंवाना बुद्धिमानी का कार्य नहीं । • अतीत भोग-विलास में बीत गया और उसमें किसी प्रकार की साधना नहीं हो सकी, इसकी चिन्ता मत कीजिए।
चिन्ता करिए वर्तमान की, जो शेष है। उसका निश्चय सदुपयोग होना चाहिए। मनुष्य वर्तमान अवस्था में जगकर, चेतकर आत्म-कल्याण कर सकता है। संसार में तीन प्रकार के प्राणी होते हैं- १. निकृष्ट (जघन्य) २. मध्यम और ३. उत्तम । जिन व्यक्तियों में सदाचार | तथा सद्गुणों की सौरभ नहीं होती, वे संसार में आकर यों ही समय नष्ट कर चले जाते हैं। मनुष्य-जीवन की प्राप्ति परम दुर्लभ है और ऐसे दुर्लभ नर-जीवन को व्यर्थ में गंवाना, अज्ञानता की परम निशानी है। ऐसे व्यक्तियों को निष्कृष्ट प्राणी समझना चाहिए। मध्यम श्रेणी के प्राणी अपने जीवन-निर्वाह के साधन में लगे रहते हैं तथा स्व-पर का उत्थान नहीं कर सकते तो अधिक बिगाड़ भी नहीं करते। तीसरी कोटि के प्राणी अपने जीवन की सुरभि तथा विशेषता द्वारा अमरत्व प्राप्त करते हैं और सांसारिक लोगों के जीवन-सुधार में सहयोग दिया
करते हैं। ऐसे प्राणी उत्तम या प्रथम श्रेणी के माने जाते हैं । . जीवन के अनमोल समय को व्यर्थ ही नष्ट कर डालना, मानव की जड़ता है। जहाँ साधारण मनुष्य धन, जन,
सत्ता, कोठी, बंगला और वैभव की सामग्रियाँ प्राप्त करने में प्रयत्नशील रहते हैं, वहाँ विचारवान और विवेकी पुरुष उन्हें नश्वर और क्षणिक मानकर, आध्यात्मिक जीवन बनाने में तत्पर रहते हैं। संसार की समस्त नश्वर वस्तुएं बनाने पर भी विनष्ट हो जाती हैं, किन्तु उत्तम जीवन एक बार बना लिया जाए तो वह फिर नष्ट नहीं होता। अनजान को समझाना आसान है, जानकार ज्ञानी भी आसानी से समझ सकते हैं,परन्तु जो जानते हुए मोह वश अनजान हैं, उनको समझाना महामुश्किल है।
जो संघ में भक्ति रखता है और शासन की उन्नति करता है, वह प्रभावक श्रावक है। • प्राणी पाप का सम्पूर्ण त्याग किये बिना संताप मुक्त नहीं हो सकता। • त्याग और वैराग्य के उदित होने पर सद्गुण अपने आप आते हैं। जैसे उषा के पीछे रवि-रश्मियाँ स्वतः ही जगत
को उजाला देती हैं वैसे ही अभ्यास के बल पर सद्गुण अनायास चमक पड़ते हैं। • आरम्भ और परिग्रह साधना के राजमार्ग में सबसे बड़े रोड़े हैं। जिस मनुष्य का मन आरम्भ और परिग्रह के दलदल में फंसा हो, वह सहसा उससे निकल कर साधना के पथ पर आगे नहीं बढ़ सकता। आत्म-ज्ञानविहीन व्यक्ति उस चम्मच के समान है जो मिष्ठान्न से लिप्त होकर भी उसके माधुर्य के आनंद से वंचित ही रहता है। लड़ाई हिंसा या कलह से प्राप्त सम्पदा, स्वयं और परिवार किसी के लिए भी कल्याणप्रद नहीं हो सकती। .
योग्यता होते हुए भी पुरुषार्थ की आग को ढक कर रखने में ज्ञान रूपी प्रकाश नहीं मिलता। • ज्ञान सुनने को यदि खाना कहें तो मनन करना उसको पचाना है। मनुष्य कितना ही मूल्यवान एवं उत्तम भोजन
करे, पर यदि उसका पाचन नहीं करे तो वह बिना पचा अन्न, अनेक प्रकार की व्याधियों का कारण बन जाता है। • मानव-मन में ज्ञान की ज्योति अखंड रहे, इसके लिए निरन्तर सत्संग, स्वाध्याय और साधना की स्नेह-धारा चलती
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