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________________ मजलजमार Tarz - - प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड ३०५। दर्शनार्थियों की पंक्ति प्रारम्भ होती जो अपराह्न आधे घण्टे के लिए विराम के अतिरिक्त सूर्यास्त के पूर्व तक चलती ही रहती। प्रतिक्रमण के लिये सूर्यास्त के १०-१५ मिनट पूर्व दर्शनार्थियों के आवागमन को बन्द करने को कहा जाता, तब ही यह क्रम रुकता। भक्तजन इस ताक में रहते, कब मंगल दर्शन की अनुमति हो, कब हम अपने प्यासे || नयनों को तृप्त करें ? कई भक्तों की इच्छा रहती कि परमाराध्य गुरुवर्य के चरण-स्पर्श का सौभाग्य प्राप्त हो व कुछ। देर गुरु-सेवा का देव दुर्लभ अवसर प्राप्त हो, पर जब दर्शनार्थियों की अपार भीड़ दृष्टिगोचर होती व समाधिस्थ || गुरुदेव का वह पावन चेहरा नयनों के सामने आता तो वे भावुक भक्त अपने कर्तव्य की ओर सजग हो जाते। उन | हजारों भक्तों की इच्छा पूरी करना सम्भव नहीं था व चरण-स्पर्श से समाधिस्थ गुरुदेव की समाधि में व्यवधान हो सकता था, उसी भावना से सबके लिये एक ही नियम था-बिना रुके, बिना चरण-स्पर्श किये पंक्तिबद्ध दर्शन करते जाये व चलते रहें। सभी दर्शनार्थी भाई-बहिनों ने भी स्थिति को समझते हुए पूर्ण विवेक व श्रद्धा के साथ व्यवस्था व शान्ति बनाये रखने में अपना पूर्ण सहयोग दिया। • सन्त-सन्निधि जैन जगत् की इस दिव्य विभूति के संथारे के समाचार विभिन्न जैनाचार्यों, सन्तों एवं महासतीगण के समक्ष । पहुँचते रहे, सभी का मन इन महाप्राण आचार्यप्रवर के संथारे के समाचारों से श्रद्धाभिभूत था, दूरस्थ विराजित पूज्य सन्त-सतीगण अपनी-अपनी भावनाएँ पत्रों के माध्यम से प्रेषित कर रहे थे, तो निकटस्थ सन्त मुनिराज व महासतीगण | निमाज पधार कर इन योगिवर्य के दर्शन-लाभ करने को उत्कण्ठित थे। श्रद्धेय तपस्वीराज ज्ञान गच्छनायक श्री । चम्पालालजी म.सा. की प्रबल भावना स्वयं पधारने की होते हुए भी अस्वस्थतावश पधारना नहीं हो सका, अत: । श्रद्धेय पण्डित रत्न श्री घेवरचन्दजी म.सा. 'वीरपुत्र' ने पूज्य श्री की सेवा में पहुँचने हेतु विहार कर दिया, पर शारीरिक कारणवशात् वे पधार नहीं पाये। समताविभूति श्रद्धेय आचार्य नानालालजी म.सा. ने अपने शिष्यगण श्री ज्ञानमुनिजी म.सा.ठाणा २ को पूज्य भगवन्त की सेवा में भेजा, इधर उग्र विहार कर जयमल जैन संघ के आचार्य कल्प श्री शुभचन्द्रजी म.सा. ठाणा ३ पूज्य सेवा का लाभ लेने पधारे एवं श्री शीतलमुनिजी आदि ठाणा ३ भी गुरु-दर्शन हेतु पधारे । महासती श्री उमराव कंवरजी म.सा. 'अर्चना' आदि ठाणा, महासती श्री चेतनाजी म.सा. ठाणा ३, महासती श्री आशाकंवरजी आदि ठाणा, महासती श्री मञ्जुकंवरजी ठाणा ६ आदि महासतीगण भी पूज्य आचार्य भगवन्त के दर्शनार्थ पधारी। पूज्य भगवन्त के इस अद्भुत संथारे के अवसर पर मुनि-मण्डल, महासती-मण्डल ,चतुर्विध संघ के विराजने से निमाज ग्राम एक नई चहल-पहल, नई शोभा लिये तीर्थ बन गया। सभी ग्रामवासी इस अदृष्टपूर्व दृश्य को देखकर विस्मयविमुग्ध रह जाते। गाँव की चहल-पहल व शोभा को देखकर ऐसा प्रतीत होता मानो साक्षात भगवान का ही वहाँ समवसरण हो। • आत्मरमण में लीन योगी श्रद्धा के केन्द्र परम पूज्य गुरुदेव तो इन सबसे सर्वथा परे आत्मरमण में लीन थे, कौन आया, कौन गया, इसकी उन्हें न कोई चाह थी, न ही इस ओर कोई ध्यान था। वे आत्मसमाधिस्थ योगिराज तो अतुल आत्मबल,अदम्य उत्साह, अटल धैर्य, अथाह गाम्भीर्य व विरल शान्ति भाव के साथ सब 'पर' भावों से परे, मात्र अपनी आत्मा में ही रमण करते मग्न थे। वस्तुत: उनकी साधना उस उत्कृष्ट अवस्था को पा चुकी थी जहाँ न तो यश व अतिशय के वशीभूत हो जीवन की कामना अवशिष्ट रहती है और न ही अशक्तता, दुर्बलता व रुग्णता
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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