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________________ [प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड ३०१ मानवों के हृदय पटल पर स्थायीरूपेण टंकित होगा। मुझ जैसे पामर अज्ञानी के लिये निश्चित ही आपका यह कदम सदैव प्रेरणास्रोत बन प्रवहमान रहेगा। आपश्री की जागृत हुई शुभ भावना को निर्विघ्नतया निर्बाध रूप से सच्चे साधक के स्वरूप में सफलता प्राप्त होवे, ऐसी परमाराध्य परम इष्ट पूज्य गुरुदेव श्री से निरन्तर प्रार्थना करता हूँ एवं आशा रखता हूँ कि त्यागवीर , तपवीर, ज्ञानवीर, ध्यानवीर, महावीर, धीर, वीर, गम्भीर, सन्त महन्त ऋषिमुनि भगवन्त के परम आशीर्वाद से मुझे भी पण्डितमरण की प्राप्ति हो, इसी सद्कामना के साथ । " पूज्य श्री प्रकाशचन्द जी म.सा आगम रत्नाकर श्री रामप्रसादजी म. आदि का सांगरिया (राज.) से प्रेषित पत्र का अंश "आपने जो जिनवचन अथवा जिन धर्मामृत से विभूषित देह पाया, उस भवन में आज धर्मरत्नों की स्वर्ण वृष्टि हो रही है । मेरा (हमारा) हृदय आपका अभिनन्दन कर रहा है। आपने जो मोक्ष साधनोपायभूत संथारा लिया है, वह मोक्षार्थ की गई परमार्थ-साधना की पराकाष्ठा है, तीर प्राप्ति है। देवावि देव लोए भुंजता बहुविहाई भोगाई। संथारं चिंततां आसणसयणाई मुंचंति ।।(संथारंग पइन्ना) देव भी देवलोक में विविध भोगों में रत होने पर भी (आप जैसों के) संथारे का खयाल आते ही आसन, | शयन छोड़कर (आपकी वंदना करते होंगे) आपने जो जीवन संग्राम अब तक किया, आज उसके शीर्ष पर पहुँच गये हैं, विजय श्री आपके निकट ही है। आराधना पताका उच्च भावों की पावन पवन से प्रेरित होकर उच्चाकाश में फहरा रही है। तप-संयम के शस्त्रों से सभी मुनिवर सुसज्जित होते हैं पर संलेखना रूप सुदर्शन चक्र तो किसी-किसी संयमी चक्रवर्ती के हाथ आता है क्योंकि धारण करने की तथा प्रयोग करने की क्षमता हर एक में नहीं होती है। • उमड़ पड़ा श्रावक-समुदाय पूज्यपाद आचार्य भगवन्त के संथारा-ग्रहण करने के समाचार देश-देशान्तर में विद्युत वेग से फैल गये। जिसने भी सुना अवाक् रह गया, अनायास विश्वास ही नहीं कर पाया। सभी अपने-अपने मन में विविध कल्पनाएँ| करने लगे क्या हम श्रमण भगवान् महावीर के शासन के इस दिव्य देदीप्यमान नक्षत्र के प्रभामण्डल से अब वंचित हो जायेंगे? रत्नवंश के इस विराट कल्पवृक्ष जिसने अपनी शीतल छाया से अपने-पराये का भेद न रख कर सभी को अपना सुखद सान्निध्य प्रदान किया, जिन-शासन सेवा में जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया, सामायिक एवं स्वाध्याय के प्रचार-प्रसार एवं इनके सन्देश को घर-घर तक पहुँचाने के लिए दीर्घ विहार करने में कभी परीषहों की परवाह न की, विमल संयम-साधना एवं आचार प्रधान संगठन जिन्हें सदैव अभीष्ट रहे, साम्प्रदायिक वैमनस्य जिन्हें कभी छू भी न पाया, युवा पीढ़ी को व्यसन-मुक्त बन्धुभाव में संगठित करने में जो अपने जीवन के सन्ध्याकाल में भी पीछे नहीं रहे, अलभ्य गुण संयोग के धनी इन युग प्रधान आचार्य भगवन्त के संरक्षण से क्या हम वंचित हो जायेंगे? पर जब सबने निमाज से विश्वस्त समाचार सुने, सभी स्तब्ध रह गये, सर्वत्र एक मौन सन्नाटा सा छा गया। सम्पूर्ण जैन समाज में एक ही चर्चा थी-आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज साहब ने यावज्जीवन संथारा ग्रहण कर लिया है-धन्य-धन्य भगवन् । आपका समग्र अप्रमत्त संयमी जीवन जिनशासन की कीर्तिपताका को दिग्-दिगन्त में फहराने में सन्नद्ध रहा, तो आज आप संथारा समाधिपूर्वक मरण-विजय की ओर अग्रसर हो,आने वाली पीढ़ियों के लिये एक आदर्श उपस्थित कर रहे हैं। सभी मन ही मन इस महापुरुष के चरणों में नत मस्तक थे।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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