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आमुख आपकी पीड़ा की अभिव्यक्ति द्रष्टव्य है- "जो मां-बाप बच्चों के शरीर की चिन्ता करते हैं, किन्तु आत्मा की चिन्ता नहीं करते, उनके जीवन-सुधार की चिन्ता नहीं करते, मैं कहूंगा वे सच्चे मां-बाप कहलाने के हकदार नहीं हैं। यदि मां-बाप को अपना फर्ज अदा करना है तो उन्हें अपने बालक-बालिकाओं के चरित्र-निर्माण की ओर पूरा ध्यान देना चाहिए। आज जीवन-निर्वाह की शिक्षा के लिए वे बच्चों पर हजारों लाखों रुपये व्यय कर देते हैं, जीवन-निर्माण के प्रति भी उनका वैसा ही ध्यान होना चाहिए।"
__ बालिका को आचार्य श्री ने देहली के दीपक की उपमा देते हुए फरमाया- "जिस प्रकार देहली में रखा हुआ दीपक कमरे के अन्दर और बाहर दोनों ओर प्रकाश फैलाता है, उसी प्रकार बालिका की शिक्षा और संस्कार से दो घर-परिवार संस्कारित एवं प्रकाशित होते हैं। इसलिए बालक से भी अधिक बालिका को संस्कारित करना परिवार एवं समाज के विकास के लिए आवश्यक है। बचपन में ही बालक-बालिका में जो संस्कार दिये जाते हैं, वे प्रायः स्थायी होते हैं। विषम एवं विपरीत परिस्थितियों में भी उनके बचपन के संस्कार जागृत होकर उन्हें दिशा-निर्देश करते हैं। समाज में कन्या का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसे प्राचीन कुरीतियों के दुष्परिणामों से अवगत कराते हुए साक्षरता के साथ जीवन-निर्माणकारी शिक्षा से जोड़ा जाए तो भावी समाज एक नई करवट ले सकता है। इस प्रकार के आपके युग-प्रभावी सोच से जैन समाज प्रभावित हुआ।
आचार्य श्री का चिन्तन व्यापक दृष्टिकोण को लिए हुए होता था। वे प्रत्येक जन का विकास देखना चाहते थे। जब युवकों को उन्होंने धर्म से विमुख देखा तो उन्हें भी जीवन को ऊंचा उठाने की प्रेरणा करते हुए धर्म से जोड़ा। युवकों को आपने व्यसनमुक्ति के साथ विवेक को जागृत रखकर निरन्तर आगे बढ़ने की प्रेरणा की। आपका मन्तव्य था कि युवक संगठित होकर समाज को बुराइयों से बचाने में अग्रणी भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं। आपने धर्म को पोशाक की भांति नहीं, अपितु जीवन-सुधार के आधार की भांति समझने की प्रेरणा की। आपने फरमाया कि धर्म दिखावे की वस्तु नहीं, अपितु चित्त को निर्मल बनाने का साधन है। जब भी कोई यवक उनके सम्पर्क में आता तो आप उसमें परमेष्ठि-स्मरण स्वाध्याय. सामायिक. सेवा आदि प्रवत्तियों से जडने की भाव-भमि तैयार करते थे। यवकों में वद्ध धर्म-जनों की काषायिक परिणितियों को देखकर जब कभी धर्म से विमुखता दिखाई पड़ती तो आप फरमाते कि हमें वृद्धजनों की काषायिक परिणतियों को देखकर धर्म को हेय नहीं समझना चाहिए। धर्म तो अपनी वृत्तियों पर विजय का उत्कृष्ट साधन है। धर्म केवल स्थानक तक ही सीमित नहीं है, इसका प्रयोग जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में होना चाहिए। यदि वृद्धजनों द्वारा धर्म को जीवन में सम्यक् । रूपेण स्थान दिया जाए तो प्रश्न ही नहीं उठता कि युवक धर्म से विमुख हों। धर्माचरण का संबंध सम्पूर्ण जीवन से है। भगवान ने तो फरमाया है कि जब तक तुम्हारा शरीर स्वस्थ है, इन्द्रियाँ बराबर कार्य कर रही हैं, तब तक धर्म साधना कर लेनी चाहिए- 'जाव इन्दिया न हायन्ति, ताव धम्म समायरे'। जब कोई बुजुर्ग भाई आचार्य श्री से। कहते कि महाराज पोते का विवाह कर लू, कारोबार बेटों-पोतों को संभला , तब धर्म की आराधना करूंगा तो । आयार्य श्री उन्हें स्मरण कराते- "इसका क्या भरोसा कि जब पोता खड़ा होगा तब तक आप गोता नहीं खायेंगें। इतिहास साक्षी है कि राजघराने के लोगों ने भरी जवानी में राजवैभव के विलास और आमोद-प्रमोद को छोड़कर। धर्म-साधना प्रारम्भ की।"
धर्म के सम्बन्ध में आपने इस रूढ मान्यता पर प्रहार किया कि धर्म से मात्र परलोक सुधरता है, इस लोक || के लिए धर्म नहीं है। आपने फरमाया कि भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित धर्म परलोक के लिए तो कल्याणकारी है। ही, किन्तु उससे पहले वह इहलोक के लिए कल्याणकारी है। इस लोक में मानसिक शान्ति, कषायों के शमन से प्रशम सुख की अनुभूति, पारस्परिक कलह के स्थान पर मैत्री का वातावरण, एक-दूसरे के प्रति सहयोग का भाव, तृष्णा पर नियन्त्रण आदि विभिन्न धर्म परिणाम इहलोक में देखे जाते हैं। आपका उपदेश साधारण शैली में