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....... आमुख
Xxviii प्राणातिपात, मुषावाद, अदत्तादान, कशील, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, पर-परिवाद, रति-अरति माया-मृषावाद और मिथ्यादर्शन शल्य इन 18 पापों का त्याग किया जाता है। अकस्मात् एक क्षण में 18 पापों का त्याग करना पूर्णतः संभव तो प्रतीत नहीं होता, किन्तु इस ओर सजगता रखकर समभाव या आत्मभावों में रहने का अभ्यास किया जाए तो निश्चित ही शान्ति, मैत्री, क्षमा, निरभिमानता. अनासक्ति आदि सदगणों की निधि व्यक्ति के जीवन को उन्नत और मूल्यवान बना सकती है। साघ-साध्वी तो तीन करण तीन योग से जीवन पर्यन्त समभाव की साधना करने की प्रतिज्ञा करते हैं। आपश्री ने जब से संयम अंगीकार किया, सामायिक की इस प्रतिज्ञा का विस्मरण नहीं होने दिया। आप सदैव चेतना के स्तर पर समभाव की साधना करते हुए आत्मगुणों के पोषण एवं संवर्धन में सहज सजगता पूर्वक लगे रहे। सामायिक साधना के ऐसे महान् साधक का जीवन बोलता था। आपकी वाणी का जादू सा असर होता था। आपने लोगों को अपनी रचनाओं में संदेश दिया कि सामायिक जीवन की उन्नति का मूल है, सचिद् आनन्द का स्रोत है, जग के सब जीवों के प्रति बन्धुभाव की प्रेरक है, मोह के जोर को घटाने एवं आकुलता का निवारण करने का उत्तम साधन है। यह जीवन-सुधार का आधार है तथा अपने जीवन के सुधार से देश, जाति आदि सबका सुधार संभव है
सामाग्रिक से लीवन सधर को मानना ।
निज सुधार से देश जाति मुभी हो जाने का। सामायिक और स्वाध्याय के श्रेष्ठ उपायों को आपने एक-दसरे से जोडा। स्वाध्याय के साथ जीवन में समभावों के अभ्यास के लिए सामायिक और सामायिक के समभावों को दृढ़ बनाने के लिए स्वाध्याय का अमोघ उपाय आपने जन-जन को अर्पित किया। स्वाध्याय और सामायिक के व्यापक प्रसार हेतु आपने सामूहिक सामायिक करने की प्रेरणा की, जिससे अनेक स्थानों पर सामायिक-संघों का गठन हआ। सैकड़ों की संख्या में ग्राम-नगर सामायिक संघों से जड़ते चले गए। स्वाध्याय को भी आप समाज धर्म बनाना चाहते थे। क्योंकि स्वाध्यायशील समाज सामाजिक कुरीतियों को त्यागता हआ तीव्र गति से विकासोन्मुख हो सकता है। स्वाध्याय को यदि समाज धर्म बनाया जाए अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति आवश्यक रूप से सत्साहित्य का स्वाध्याय करे तो अनेक सामाजिक समस्याओं से सहज ही मुक्ति संभव है। कलह, द्वन्द्व आदि का कारण अज्ञान है। स्वाध्याय से जब ज्ञान का प्रकाश मिलता है तो बहुत से कुविचार स्वतः समाप्त हो जाते हैं। पारिवारिक एवं सामाजिक व्यवहार में भी परिवर्तन परिलक्षित होता है। संत-जीवन के प्रारम्भिक वर्षों से ही आपने स्वाध्याय और सामायिक के फल का जो स्वयं रसास्वादन किया, उसे दूसरों में वितरण करने की भावना ने ही सामायिक और स्वाध्याय की प्रवृत्तियों को वेग प्रदान किया।
गृहस्थ जहाँ द्रव्य दान करके अपने को महान् दाता समझता है, वहाँ संत-महापुरुष अमूर्त रूप में व्यक्ति और समाज को कितना देते हैं इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। वे अखूट दानी होते हैं। जो कार्य करोड़ों रुपयों में नहीं हो सकता, वह संत के एक वचन से संभव है। दूसरे शब्दों में कहें तो संत के एक वचन से जीवन का ऐसा निर्माण हो सकता है जो करोड़ों अरबों रुपयों से कदापि नहीं हो सकता। इसीलिए संतों के चरणों में लक्ष्मीपति भी श्रद्धापूर्वक अपना मस्तक झुकाते हैं। आचार्यप्रवर ने ज्ञानदान, अभयदान आदि के साथ सामायिक की अनूठी साधना करते हुए उसे जन-जन में जिस भावना से वितरित किया, उसका मूल्य आंकना तो सम्भव ही नहीं। प्रसिद्ध कथन है कि लाखों सुवर्ण मुद्रा का प्रतिदिन दान करने वाला व्यक्ति एक सामायिक करने वाले की बराबरी नहीं कर सकता
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